Wednesday, January 6, 2016

ब्राह्मण कितना भी योग्य हो और कितने भी बड़े पद पर विराजमान हो, वह अपनी ब्राह्मणवादी, असमानतावादी सोच से पीड़ित रहता है।

ब्राह्मण कितना भी योग्य हो और कितने भी बड़े पद पर विराजमान हो, वह अपनी ब्राह्मणवादी, असमानतावादी सोच से पीड़ित रहता है। येसे ही एक व्यक्ति थे- चक्रवर्ती राजगोपालाचारी.
इनका नाम आप सबने सुना होगा। स्वतंत्र भारत में लार्ड माउंटबेटन के बाद ये 21 जून 1948 से 26 जनवरी 1950 तक भारत के गवर्नर जनरल रहे हैं।
ब्राह्मण जाति के चक्रवर्ती राजगोपालाचारी 10 अप्रैल 1952 से 13 अप्रैल 1954 तक मद्रास (तमिलनाडु) राज्य के मुख्यमंत्री रहे। 1952 में इन्होंने प्राथमिक शिक्षा को लेकर एक मनुवादी फरमान जारी किया था। जारी इस शिक्षा नीति के अनुसार बच्चों को स्कूल में पिता के पेशे वाली शिक्षा दी जानी थी। 
मतलब भंगी के बेटे को मैला साफ़ करने की शिक्षा, 
नाई को हज्जाम की, 
बढ़ई के बेटे को फर्नीचर बनाने की, 
चमार को जूता बनाने की, 
पासी को ताड़ी उतारने की, 
मुसहर को सूअर पालने की, 
धोबी को कपड़ा धोने की, 
यादव को गाय दुहने की, 
कहार को डोली उठाने की, 
मल्लाह को नाव चलाने की, 
कुम्हार को मिट्टी के बर्तन बनाने की शिक्षा दिया जाना तय किया गया था। 
जबकि ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य के बच्चों को संस्कृत, धर्म, साहित्य, तकनीक, अस्त्र-शस्त्र, घुड़सवारी, अकाउंट, गणित, बिजनेस आदि की शिक्षा दिया जाना तय किया गया था। 
मतलब सवर्णों का बच्चा वैज्ञानिक शिक्षा पाकर उच्च अधिकारी बनता, और हमारे लोग जहां थे, वही रह जाते। इतना ही नहीं। उस बेहूदे ने हमारे समाज की लड़कियों के लिए तनिक भी नहीं सोचा कि वे क्या पढ़ेगी? आज थोड़ा अलग मामला है। आज ब्राह्मण हमारे लोगों को सभ्यता-संस्कृति के नाम पर हिंदी-संस्कृत पढ़ने को कहते हैं और अपने बच्चों को विदेश में इंग्लिश मीडियम में पढ़ाते हैं। उस समय मद्रास में पेरियार ई. वी. रामासामी नायकर ने मनुवादी फरमान का जमकर विरोध किया। मजबूरन इस शिक्षा नीति को वापस करना पड़ा। आज भी ब्राह्मणों की होशियारी से सावधान रहने की जरूरत है।
(व्हाट्सएप से साभार)
जय भीम

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