Saturday, October 17, 2020

डाॅ भीमराव आंबेडकर जी की हस्त पेंटिंग और निखिल सबलानिया का मिशन रिक्रिएटिंग आंबेडकर इन आर्ट

आप में से बहुत से लोगों ने डॉ. भीमराव आंबेडकर जी की पुरानी फोटों देखी होंगी। बहुत सी तो ऐसी हैं कि उन्हें ध्यान से देखना पड़ता है। पर क्या हमने यह कोशिश की कि डाॅ. आंबेडकर जी के वे सारे फोटों हम रंगीन या आर्ट वर्क में क्यों नहीं करते। इसी बात की शुरुआत दिल्ली के निखिल सबलानिया ने की है। वे एक लेखक, फिल्मकार और प्रकाशक भी हैं। उन्होंने खुद डॉ. आंबेडकर जी की लिखित पुस्तकों का अनुवाद भी किया है। मिशन रिक्रिएटिंग आंबेडकर इन आर्ट के बारे में उनका कहना है :


"64 सालों के बाद भी हमने डॉ. आंबेडकर जी की पुरानी तस्वीरों की न पेंटिंग बनाई और न डिजिटल रिक्रिएशन किया। देखने को डॉ. आंबेडकर जी की दो चार पेंटिंग्स ही नजर आती है। दुनिया के तमाम क्रांतिकारियों को लोगों ने अलग-अगल आर्ट शैली में बनाया पर डॉ. आंबेडकर जी के इतने चित्र होते हुए भी यह नहीं हुआ। हजारों आर्टिस्टों ने आरक्षण से शिक्षा पा कर भी यह नहीं किया। लाखों अफसरों और हजारों नेताओं ने भी आरक्षण से मोटी आमदनी लेकर भी यह नहीं किया। करोड़ों लोगों ने बाबासाहेब जी पर ध्यान ही नहीं दिया। यह काम उन शिक्षित लोगों का था जो आज तक नहीं हुआ। इसलिए न डाॅ. आंबेडकर जी आर्ट की दुनिया के विषय बनें और न ही शोषित वर्गों की कोई आर्ट बन पाई। कला अभिव्यक्ति का एक माध्यम है पर उस ओर भी ध्यान देना पड़ता है और बाबासाहेब जी की तरफ ध्यान नहीं दिया गया। वे राजनैतिक सत्ता और उनके अधिकार केवल सुखी जीवन की कुंजी बन गए। कुछ लोगों ने यह कार्य किया पर बाकि लोगों ने उन्हें सपोर्ट नहीं किया। इसलिए कला से डॉ. भीमराव आंबेडकर जी और शोषित वर्गों की क्रान्ति जुड़ नहीं पाई।"



निखिल सबलानिया ने अब यह शुरुआत की है पर वे इस बात से चिंतित हैं कि क्या यह कार्य वास्तविकता ले पाएगा। निखिल सबलानिया पिछले ग्यारह सालों  से डॉ. आंबेडकर जी के विचारों का प्रचार कर रहें हैं। उनके द्वारा शुरु किए गए कुछ कार्य मिल का पत्थर साबित हुए और लाखों लोगों तक डाॅ. आंबेडकर जी का संदेश पहुंचाया और उन्हें संगठित होने के लिए प्रेरणा दी। निखिल सबलानिया द्वारा शुरू किए गए कुछ कार्य इस प्रकार रहे हैं। वर्ष 2009 में यूटयूब, फेसबुक, आदि माध्यमों से लोगों तक डाॅ. आंबेडकर जी के विचारों को वीडियो और लेखों के माध्यम से पहुंचाना शुरु किया, वर्ष 2011 में डाॅ. आंबेडकर जी की लिखित पुस्तकों, बौद्ध साहित्य और जाति की समस्याओं की पुस्तकों का प्रथम बार आॅनलाईन प्रचार करके उन्हें लोगों तक भेजना शुरू किया, 2013 में शोषित वर्गों में व्यवसाय के प्रति रूचि जगाने के लिए कई लेख लिखें और व्यवसाय सिखाने वाली पुस्तकें लोगों तक पहुंचाई, 2014 में डॉ. भीमराव आंबेडकर जी की फोटो प्रिंट वाली टिशर्ट को जनमानस में लोकप्रिय बनाने के लिए खूब प्रचार किया, 2012 से 2019 के बीच डॉ भीमराव आंबेडकर जी की संक्षिप्त जीवनी, बौद्ध धम्म पर दो पुस्तकें, लघु उपन्यास लिखे और डाॅ. आंबेडकर जी की लिखित पुस्तकों का अनुवाद किया, और इस वर्ष उन्हें सर्व सुलभ करने के लिए फ्री आनलाईन वितरित भी किया, 2020 में लोगों को फ्री इंग्लिश सीखाने के लिए आॅनलाईन चैनल शुरू किया और अब तक वे डॉ आंबेडकर जी की 12 पेंटिंग्स भी बना चुके हैं जिनमें से एक राजस्थान के मनोज गहलोत जी ने खरीद कर उनका उत्साह वर्धन भी किया है। 

निखिल सबलानिया द्वारा बनाई गई पेंटिंगस डाॅ. आंबेडकर जी के अलग-अगल फोटों पर आधारित हैं। दो पेंटिंगस तो तीन बाई तीन फुट की विशाल पेंटिंगस हैं जो डॉ. आंबेडकर जी के विषेश कार्यों पर आधारित हैं जिनमें वे संविधान बनाने के समय अपने घर पर सुबह अखबार पढ़ रहे हैं और रौशनी की किरणें उनके चेहरे पर पड़ कर उनकी आभा मंडित करती है। एक दूसरी बड़ी पेंटिंग में डाॅ. आंबेडकर जी अपने आॅफिस में फोन पर बात कर रहे हैं और उनका गंभीर चेहरा उनके जीवन की उस तपस्या को बताता है जो उन्होंने करोड़ों शूद्रों के उत्थान के लिए की। 

हांलाकि इन पेंटिंगस के दाम अधिक लगते हैं पर हस्त पेंटिंग और कला की द्रष्टि से उतने नहीं हैं। साथ ही कला जगत में जो काम जितना पुराना हो जाता है उसकी कीमत साल दर साल बढ़ती जाती है। ऐसे लोग न केवल कला और कला के माध्यम से किसी व्यक्ति या सिद्धांत को जीवित ही रखते हैं बल्कि कलाकृतियों का संग्रह करके बाद में उन्हें अच्छे दामों पर भी बेचते हैं। फिलहाल निखिल सबलानिया की पेंटिंगस बारह हजार से एक लाख रुपये के बीच है। साथ ही यदि आप उनसे पेंटिंगस खरीद कर उन्हें निखिल सबलानिया के माध्यम से दुबारा बेचते हैं तो बिकने पर वे उसकी दुगनी कीमत देने का अनुबंधन भी करते हैं। पेंटिंग्स के प्रिंटिंग अधिकार में भी सहभागिता मिलती है जिससे पोस्टर या कैलेंडर बना कर बेचे भी जा सकते हैं। इस प्रकार बेशक कई आर्थिक लाभ भी कलाकृतियों के साथ जुड़ा होता है और साथ ही यह मानव सभ्यता में अपनी छाप भी छोड़ती है। 

भारत में कलाकृतियों के प्रति लोगों में कम रूचि है। बहुत से लोग पेंटिंग्स या कलाकृतियों को फोटो से मिलाते हैं पर पेंटिंग की खासियत यह होती है कि वह न तो फोटो होती है और न ही फोटो की तरह बेजान। पेंटिंग का एक अलत प्रभाव होता है। पेंटिंग कई शैलियों की होती है। पेंटिंग में कलाकार के स्ट्रोक से लेकर रंगों तक का अलग प्रभाव होता है। पेंटिंग अपने विषय और कलाकार दोनों के बारे में बताती है। पर जिस प्रकार लोगों में शिक्षा और आर्थिक तरक्की हो रही है उससे उनमें कला के प्रति रुचि जागना स्वाभाविक है। और एक दिन भारत में भी यूरोप, अमरीका और जापान की तरह कलाकृतियों के प्रति लोगों में रुचि जागेगी। आज हम बेशक उपभोक्तावादी जीवन शैली का हिस्सा हैं पर इसकी शक्ति सीमित है। मनुष्य जल्द ही इससे ऊब जाता है और तब कला की ओर आकर्षित होता है। हजारों वर्षों पहले बनाए गए गुफाओं के चित्र या अशोक कालीन कृतियां हीं तो मानव सभ्यता की बची हुई असली संपत्ति हैं। ऐसे ही निखिल सबलानिया द्वारा बनाई गई डॉ. आंबेडकर जी की पेंटिंगस हर सौ सालों बाद आज के समय को याद दिलाएंगी। चूंकि पेंटिंगस अच्छे मैटिरियल से बने हैं इसलिए सामान्य तापमान में सैकड़ों वर्षों तक सही रह सकती हैं। 

निखिल सबलानिया द्वारा बनाई गई डाॅ. आंबेडकर जी की इन प्रेरणादायी पेंटिंगस को आप आॅनलाईन ऑर्डर कर सकते हैं या फोन से। यदि किसी विशेष पर्व के लिए आॅर्डर करनी है तो दो से तीन महीने या कई मामलों में छः महीने से एक साल पहले आॅर्डर करनी होती है क्योंकि सूखने में समय लगता है। कुछ तैयार भी मिलती है। तो जरा सोचिए कि पांचसौ सालों बाद आपकी बीसवी पीढ़ी के घर में निखिल सबलानिया की बनाई दस फुट की बड़ी डॉ. आंबेडकर जी की पेंटिंग लगी है तो कैसा लगेगा। 

फोन - मो. 8851188170 

WA. 8447913116 

sablanian@gmail.com

पेंटिंगस आॅनलाईन ऑर्डर करने के लिए 

www.nspmart.com/product-category/hp



Friday, October 2, 2020

हाथरस पर ऐडवोकेट उर्वशी सिंह ने क्या कहा?

 


पूरा वीडियो देखने के लिए यहाँ क्लिक करें  

https://www.facebook.com/urvashi.singh.923724/videos/1697041997129969/





आंबेडकर परिवार लड़ेगा उसका केस। राजरत्न आंबेडकर


मनीषा मेरी बहन है, डाॅ. आंबेडकर जी की बेटी है। आंबेडकर परिवार लड़ेगा उसका केस।" राजरत्न आंबेडकर। हाथरस स लौट कर क्या बताया केस के बारे में। 

नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें 

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=337562230658288&id=612122935574344

(आंबेडकरवादी साहित्य के लिए www.nspmart.com)

Caste In Indian Theaters by Saumyadeb Hui

The following observation is given I. A reply by the writer yo an eminent theater personality in India (addressed here as Dada or Dada) on question of existence of caste discrimination in Indian theatre. 



1. The traditional Indian theatre is based on caste division. "Chakyarkooth", "Nangyarkooth": the art forms bear the name of the castes. 

2. Sorry, if I hurt anyone, but even in modern proscenium theatre, how many dalit director or actors do we see? Do we find any dalit names in the history of modern Indian theatre? Do we find dalit names in contemporary times? Do we find them among the film makers and film actors? Do we have any Dalit hero in Bollywood or Tollywood?

Sorry dada, for saying this. Those names that are there in the history as luminaries they deserve their respective positions but we lost many dalit and other "lower" caste theatre and film luminaries just because there is a huge lack of opportunity.

I am basing my logic like Virginia Woolf in "A Room of One's Own". We don't have a 'Judith Shakespeare', that doesn't mean women can't write. That means if Shakespeare had a sister named "Judith" then she can never be like 'William' in spite of similar talent. Because the society won't let her. Similarly, we we don't have many dalit and other "lower" caste & tribal luminaries in theatre and films because the society didn't allow these "Judith Shakespeare"-s of India to flourish. 

3. Back to my first point. We can also see " Nangyarkooth" "Chakyarkooth", " Therakooth", "Chhau", "Rai Benshe", "Kirtan" (Bengali story telling tradition) in the light of a medium of expression of a particular oppressed caste, tribe and philosophy. Then this process of making these art forms 'museum piece' and removing them from the centre  of our culture and promoting a theatre & film culture devoid of dalits, tribals, and other non prominent classes is also an undercurrent of a dangerous casteism. 

Casteism and caste segregation may not involve violence and crime. It can be cultural as well. However, it is not just prevalent, it is rampant. That is why we can hardly name a Bollywood luminary or a national theatre figure who is a dalit or a tribal. 

If we consider dalit and tribal women in the national arena of theatre and films then the situation is way darker. 

P.S.: Sorry, if I have hurt anyone's feelings. I heartily respect all the past and present theatre and film personalities. I have nothing against anyone. I have a lot against this society, for which we lost many other creative geniuses.

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