Saturday, January 2, 2016

डॉ भीमराव अम्बेडकर के जीवन की सच्ची प्रेरणादायक बातें - संकलन: निखिल सबलानिया



बाबासाहेब डॉ. बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की ईमानदारी का ऐतिहासिक प्रसंगअम्बेडकर की ईमानदारी का ऐतिहासिक प्रसंग

1943 में बाबसाहेब श्रम मंत्री थे और पी डब्ल्यू डी विभाग भी उन्हीं के पास था। डॉ अम्बेडकर के इस विभाग का प्रमुख बनने से पहले इस विभाग का सालाना बजट एक करोड़ रूपये का था जो डॉ अम्बेडकर के प्रमुख बनने के बाद पचास करोड़ रूपये सालाना का हो गया था क्योंकि दिल्ली का विकास करना था और डॉ अम्बेडकर को इसलिए मुखिया बनाया गया था क्योंकि वह एक, शिक्षित, बुद्धिमान, ईमानदार और उच्च चरित्र के आदरणीय व्यक्ति थे। 30-6-1944 को दिल्ली के एक बड़े करोड़पति ठेकेदार के पुत्र बाबासाहेब के बेटे यशवंत राव से दिल्ली में मिले और उनसे कहा कि यदि वह डॉ अम्बेडकर को सरकारी ठेके दिलवाने के लिए मनवा ले तो वह यशवंत को उन ठेकों में भागिदार बना लेंगे और 25%-50% तक कमीशन देंगे। माननीय यशवंत मान गए। उसी शाम जब डॉ अम्बेडकर को यह बात पता चली तो वह अपने पुत्र पर इतने आग बबूल हो गए कि की यशवंत को उसी रात यह कहते हुए वापिस बॉम्बे (मुंबई) भिजवा दिया कि : " मैं यहाँ पर केवल सारे अछूत (दलित) समाज के उद्धार के ध्येय को लेकर आया हूँ। अपनी संतान को पालने नहीं आया हूँ। ऐसे लोभ-लालच मुझे मेरे ध्येय से डिगा नहीं सकते।" डॉ अम्बेडकर के पुत्र को उसी रात भूखे पेट ही बॉम्बे के लिए रवाना होना पड़ा। - (यह घटना पुस्तक 'युगपुरुष बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर' में लिखी है। 

बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर की दलितों के उत्थान के प्रति सच्ची निष्ठा का एक ऐतिहासिक प्रसंग

एक बार इंग्लैंड की एक पत्रिका के प्रतिनिधि वहां से भारत यहां के प्रमुख नेताओं के इंटरव्यू लेने को आए। उन्हें मिस्टर गांधी से मिलने का समय रात्रि 9 बजे मिला, मिस्टर जिन्ना से मिलने का समय 9:30 (साढ़े नौ बजे) का मिला और डॉ अम्बेडकर ने कहा कि वह किसी भी समय आ सकते हैं। जब वह मिस्टर गांधी से मिलने गए तो उनसे कहा गया कि वह सो गए हैं सो अगले दिन आए। जब वहमिस्टर जिन्ना के घर पहुंचे तो उनके यहां भी यही कहा गया कि वह सो गए हैं सो गए हैं सो अगले दिन आए। इस बीच डॉ अम्बेडकर के पास पहुंचने में उन्हें देर हो गए और वह रात के 12:00 (बारह बजे) डॉ अम्बेडकर के घर पहुंचे तो यह देख कर आश्चर्यचकित रह गए कि बाबासाहेब अपनी पूर्ण वेशभूषा में अध्यन्न करते हुए उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। इंग्लैंड के लोगों ने यह दखते हुए आश्चर्य से उनसे कहा, "आश्चर्य है, देश के दो महान नेता मिस्टर गांधी और मिस्टर जिन्ना, हमको सोए हुए मिले लेकिन आप अभी तक अपनी नियमित ड्रेस में हमारी प्रतीक्षा में जाग रहे हैं !" बाबासाहेब ने उत्तर दिया " मिस्टर गांधी और मिस्टर जिन्ना आराम से सोते हैं, क्योंकि उनका समाज जागृत है - उनका समाज जागरूक है। मैं जाग रहा हूँ, क्योंकि मेरा समाज सोया हुआ है - अनभिज्ञ है, वह उनके समाज की भांति जागरूक नहीं है। " इंग्लॅड से आए पत्रकार यह सुन कर अवाक् रह गए।


(यह प्रसंग पुस्तक 'युगपुरुष बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर' में दिया है।)


कैसे बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर ने तैयार की दलितों में से पहले गजेटेड अफसरों की फ़ौज


ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में अछूतों (दलितों), हिन्दुओं, सीखो, मुसलमानों और ईसाईयों को गोलमेज सम्मलेन में प्रतिधित्व के अधिकार दिए गए जिसे 1935 के संविधान में रखा गया। उसके तहत मुसलमानों, सिखों और ईसाईयों को तो आरक्षण दिया गया परन्तु दलितों को तब भी वंचित रखा गया क्योंकि सरकार में तब भी अफसर बामण-बणिया थे और अपनी बामणवादी विकृत मानसिकता के कारण वह दलितों को उनको मिले अधिकारों से वंचित रखना चाहते थे। मुस्लमान, सिख, और ईसाई दलितों की तुलना में हर प्रकार से बहुत ताकतवर समूह थे सो उनके आरक्षण का कड़ाई से पालन किया जाता था और यहां तक कि उनका आरक्षण न भरा जाने पर उनके स्थानों को हिन्दुओं से भी नहीं भरा जाता था और यदि ऐसा होता तो यह समूह आंदोलन करते थे। पर बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर को इस बात की चिंता थी कि दलितों को प्रतिनिधित्व से वंचित रखा जा रहा था। सरकार ने केवल एक आदेश जारी किया पर उस पर काम तो बामण-बणिया सरकारी अधिकारीयों ने ही करना था और वह उसका पालन नहीं कर रहे थे। फिर 1943 में डॉ अम्बेडकर श्रम मंत्री बने। बनते ही उन्होंने अपनी पार्टी 'शेड्यूल कास्ट फेडरेशन' के भारत भर के दफ्तरों में यह सन्देश भिजवाया कि जो भी ग्रेजुएट (स्नातक) दलित युवक मिले उनको दिल्ली भेजा जाए। सारे भारत में खोज शुरू हो गई और बंगाल, आसाम, उड़ीसा, बिहार (झारखण्ड), तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र (गुजरात), मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़), राजस्थान, पंजाब (हरियाणा और हिमाचल प्रदेश), उत्तर प्रदेश (उत्तराखंड) और दिल्ली में जो भी शेड्यूल कास्ट के ग्रेजुएट मिले उन्हें बाबासाहेब ने अपने पास बुलवाया और उन्हें गजेटेड पोस्टों पर नियुक्त करवाया। उन्ही में से एक डी. संजीवया बाद में आँध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री, भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष और केंद्र में मंत्री बने। सैकड़ों वर्ष बाद अछूतों को देश का शासन करने के लिए शासक वर्ग का अंग बाबासाहेब ने इस प्रकार बनाया। यह था बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर का आश्चर्यजनक संघर्ष और चमत्कार। 


डॉ अम्बेडकर के पुस्तक प्रेम की प्रशंसा

मिस्टर जॉन मुंथर ने अपनी पुस्तक 'इनसाइड एशिया' (1938) में लिखा है कि "बाबासाहेब का निजी पुस्तकालय, व्यक्तिगत पुस्तकालयों में संसार में सबसे बड़ा था।" उन्होंने यह भी लिखा है कि "लोग रहने के लिए मकान बनाते हैं, लेकिन डॉ अम्बेडकर ने पुस्तकों के लिए अपना 'राजगृह' बनवाया है। " सन 1938 में उनके पुस्तकालय में लगभग 8000 किताबें थी। वह संख्या उत्तरोत्तर बढ़तीही गई, घटने का तो प्रश्न ही नहीं था। (1956 में बाबा साहेब के परिनिर्वाण के समय उनके निजी संग्रह में पचास हज़ार पुस्तकें थी। )

मेरे लोगों का पेट भरते ही दूसरी कौम वालों की नौकरी की चिंता लग जाती है - डॉ अम्बेडकर

मुझे (लेखक को) बाबासाहेब ने उद्योग विभाग में इन्स्पेक्टर सिविल सप्लाईज -पंजाब में रु 400 - 800 के ग्रेड में, केंद्र सरकार की ऊंची नौकरी पर नवम्बर, 1943 में नियुक्त करवाया था। मेरा प्रधान कार्यालय लाहौर में था। मैं लाहौर विश्वविद्यालय का पोस्ट ग्रेजुएट था। बहुत समय तक लाहौर का सार्वजनिक विद्यार्थी रहा था। वहाँ पर मेरे एक साथी थे। वे हिंदू थे। उन्होंने एम. ए. (इंग्लिश) किया था। मैं संस्कृत का एम. ए. , एम्. एल. ओ. था। लेकिन हम दोनों गहरे मित्र थे। बाबासाहेब के स्नेह और उनकी कृपा से मेरी अच्छी अधिकार संपन्न नौकरी लग गई थी। किन्तु अभी मेरी नौकरी लगी ही थी। मैं प्रायः पंजाब से यानी लाहौर से बाबासाहेब की चरण वंदना करने दिल्ली हर साप्ताह आता जाता था।

          उन्हीं के बंगले पर ठहरता था। 20 दिसंबर, 1943 के दिन प्रात: कालीन नाश्ता करते समय बाबासाहेब के प्रसन्न मन को जान कर मैंने यों ही बाबासाहेब से प्रार्थना की कि मेरे एक दोस्त को भी कहीं नौकरी पर लगवा दें। मैंने अपने हिंदू दोस्त की सारी योग्यताओं को बताया। उसके बायोडाटा का कागज़ उनके सामने रख दिया । 
          उस कागज़ को पढने के बाद बाबासाहेब ने मेरी और गंभीरता से देखा और कहा, "मेरे लोगों का पेट भरते ही दूसरी कौम वालों की नौकरी की चिंता लग जाती है।" उस समय दूसरे लोग-कुछ अधिकारी और आगंतुक भी टेबल पर साथ ही बैठे थे। लगभग सभी अपने ही लोग थे। बाबासाहेब मेरी और देखते हुए बोले, "हमारे लोग आजतक परोपकार करने में अपने आप को गौरवशाली समझते हैं। देखो इस लड़के को, अभी-अभी नौकरी पर लगा है, इसे हमारे समाज के गरीब लोगों की शिक्षा की चिंता नहीं है। इसे अपने हिंदू मित्र की चिंता है? अपने लोगों की सहायता करने के लिए मैं केंद्रीय सरकार या प्रांतीय सरकारों में एक अकेला हूँ। जबकि हिंदू या मुसलमान अपने धर्म के शिक्षित लड़कों की सहायता करने के लिए हजारों आफिसर और मंत्री विद्यमान हैं। ऐसे परोपकार करनेवाले हमारे समाज में ही मिलेंगे!" इस सम्बन्ध में उन्होंने एक एतिहासिक कथा भी सुनाई:-
          "चौदहवीं सदी में गोधरा (गुजरात) में महाराजा कृष्ण प्रसाद का राज्य था। उसके राज्य में अकाल पडा। बामण ज्योतिषियों ने राजा को बताया कि यदि नगर के विशाल तालाब में किसी मनुष्य की बलि दी जाए तो उससे जलदेवी, जो स्वयं प्यासी तड़प रही है, मनुष्य के खून को पीकर तृप्त होगी और वर्षा कर देगी। महाराज ने अपने सारे राज्य में ढिंढोरा पिटवाया कि जो कोई भाई जल की देवी के लिए अपना बलिदान करेगा उसे महापुण्य का फल प्राप्त होगा और वह स्वर्ग में जा कर महादिव्य सुख पाएगा। उसके बलिदान से जलदेवी प्रसन्न होकर सारी प्रजा के लिए जल की वर्षा करेगी। बलिदान की तिथि निश्चित कर दी गई और तालाब पर राजा का यज्ञ आरम्भ हो गया। लेकिन निश्चित तिथि तक किसी भी हिंदू धर्म वाले ने, अपनी बलि देने के लिए अपने आप को स्वर्ग जाने की इच्छा से राज ज्योतिषी के सुपुर्द नहीं किया। राजाज्ञा का कोई प्रभाव उसकी हिंदू प्रजा पर नहीं पडा। वर्षा न होने के कारण चारों और त्राहि - त्राहि मच रही थी। बामणों को छोड़ कर सभी प्यासे और भूखे मर रहे थे। बामनों में राजा अन्न बाँट रहा था। तालाब पर तमाशा देखने के लिए लोग हजारों की संख्यां में एकत्र हुए थे। बहुत से बकरे-बकरियों और गायों को काट-काट कर वर्षा की देवी पर चढ़ाया जा चुका था। अब केवल नर-बलि ही करना बाकी रह गया था। फिर से ढिंढोरा पिटा गया लेकिन उसके बाद भी कोई हिंदू आगे नहीं आया। तब एक भूखा अधनंगा, दीनहीन आदमी भीड़ में से निकला और उसने अपनेआप को बलि होने के लिए राजा के सुपुर्द किया। वह व्यक्ति अछूत था। वह जंगल में वास करता था। उसी तालाब में बामणि हत्यारों ने उसका गला काट दिया। उसके बलिदान से वर्षा हुई या नहीं, इस सम्बन्ध में इतिहास लिखने वाले चुप हैं लेकिन नर-बलि से वर्षा होती तो संसार में कहीं पर भी अकाल नहीं पड़ता। इसिलए यह केवल बामणि धोखेबाजी थी। ठीक यही अवस्था हमारे लोगों की है। अत्याचार करनेवाले, शोषण करनेवाले और दिन दहाड़े हमारी झोपड़ियों में आग लगानेवालों की रक्षा करने के लिए हमारे लोग सदा ही तैयार रहते हैं।" मेरी ओर इशारा करते हुए बाबासाहेब ने कहा - "इस लड़के की कुर्बानी इससे कम नहीं है। यह अपने बंधू-बांधवों और समाज के बेरोजगार नौजवानों की सहायता करे। इसी में समाज की भलाई है।"


डॉ भीमराव आंबेडकर का पुस्तक प्रेम - सच्ची बातें



पढ़ना-लिखना डॉ भीमराव आंबेडकर के जीवन की सबसे बड़ी ख़ुशी थी। इसका एक उद्देश्य था, उनके जीवन में यह उनका लक्षय था कि अपने आपको हर संभव शस्त्रास्त्र से लैस करे, ज्ञान का भण्डार अर्जित करे और मानसिक शक्ति विकसित करके और भी ऊँची उपलब्धियों और उस नई ज़िन्दगी के लिए स्वयं को तैयार करें, जो उनके लिए एक महान कैरियर के द्वार और संभावनाएं खोलनेवाली थी। 

डॉ आंबेडकर बड़े पढ़ाकू थे। उनकी पुस्तकों का संग्रह देश में सबसे विपुल और विविध था। पुस्तकों और ज्ञानार्जन की उनकी पिपासा कभी शांत नहीं होती थी और गंगा की तरह अजस्त्र थी। वह कहते थे, "मेरी पुस्तकें मेरी साथी रही हैं, वह मुझे पत्नी और बच्चों से भी अधिक प्यारी हैं।" पुस्तकें डॉ आंबेडकर के जीवनभर उनकी महान और सच्ची  मित्र रहीं। पुस्तकों की संगती में उन्हें अपार आनंद और सुख का अनुभव होता था। पुस्तकें उन्हें गम्भीरतापूर्वक औरों से ऊपर और अलग रखती थीं। वह उनके उनके लिए आत्म-विकास, शिक्षा, मनोरंजन और आनंद का सबसे बड़ा साधन थीं। उन्हें मनुष्य की संगती की अपेक्षा पुस्तकों की संगती में अधिक आनंद मिलता था। वह अपना एक क्षण भी नष्ट नहीं करते थे और पूरी शांति व तन्मयता से पढ़ने-लिखने में बहुत आनंद लेते थे। कभी-कभी वह मौन धारण कर लेते थे और कई तरह की पुस्तकें एक साथ पढ़ते थे और अचानक एक पुस्तक रख कर दूसरी उठा लेते थे। वह घंटी की टन-टन, गाड़ियों की गड़गड़ाहट, हथौड़े की ठक-ठक, कर, टैक्सी और बसों की चिल्ला-पौं से दूर रहना चाहते थे। सुबह-सुबह जब उनका कुत्ता जब उनकी थपथपाहट के  लिए उनके पास आता था, तभी उन्हें पता चलता था कि सुबह हो चुकी है। 

जब वह गहन अध्यन्न में जुटे होते थे, तब तक कोई भी व्यक्ति बाधा डालने का साहस नहीं कर सकता था। व्यापारियों के लिए समय ही पैसा होता है, किन्तु, डॉ आंबेडकर के साथ तो समय ने एक परम्परा का रूप ले लिया था जो उनके नाम के इर्द-गिर्द घूमता था। 

उन्हें दोस्त बनाना भी नहीं आता था। इसका एक कारण यह था कि उन्हें मनुष्यों से अधिक पुस्तकों का साथ अच्छा लगता था और वह अधिकाँश समय पढ़ने लिखने और सोचने में लगे रहते थे। ज्ञान की उनकी पिपासा एक साम्राज्य की पिपासा थी और उनके जीवन की सबसे बड़ी चाहत पुस्तकें थी। दुर्लभ पुस्तकों के संग्रह को वह बेहद लालायित रहते थे. कभी-कभी वह अपने मित्रों से इस आधार पर दुर्लभ पुस्तकें ले-लेते थे कि उनकी कॉपी करवा कर लौटा देंगे, और उन दिनों यह बड़ा मुश्किल काम होता था।  

कभी अगर वह घर पर नहीं होते थे तो उन्हें ढूंढना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं होता था। घर के अलावा वह बस पुस्तकालयों और पुस्तकों की दुकान में ही मिलते थे। उनकी राय थी कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आमदनी का दस प्रतिशत पुस्तकों पर खर्च करना चाहिए। 

संकलन: निखिल सबलानिया www.cfmedia.in



2 comments: