Tuesday, January 19, 2016

कूटनीति

स्वार्थ सिद्धि के अभिप्राय से

अब किस के मन में क्या है? हर एक के, कौन जाने?
हर तर्क संगत बात को, यहां कौन कब है माने?
है यही सब से अच्छा, स्वान्त: सुखाय ही बात हो,
परिणाम क्या है होना? खुदा भी न जाने!

वक्त पाके, बातों ने,स्पष्ट तो है होना,
किसी न किसी को तो, होना है बोना।
है कितना अजीब जीवन, का खेल, तो देखो!
बहुत कम है पाना, है कदम कदम पे खोना।

धर्म, दर्शन, नीति, स्वार्थ-सिद्धि समर्थक,
हैं इन्सानियत, शराफत की बातें, निरर्थक,
कपट, छल से छलना, है आम मकसद,
है सलीके से बनाई, ये बातें द्वियर्थक।।

कहे, बात है हक की, जिसने भी पर्दा उठाया,
किसी ने तर्क सहारे, था सोतों को जगाया ।
किया बर्बाद पीढियों को, हर मुमकिन तरह से, 
किया बायकाट सदियों, जमीं में दबाया।।

डा० धनी

कई धर्म, चरित्र हैं आप ही गिराते,
जो धार्मिक कहलायें, नहीं आप उठाते,
जो बनना हो आध्यात्मिक, उठ़ो धर्म से ऊपर!
क्या धर्म और अध्यात्म, अलग पाठ पढाते?

यहां भटके हुए और भी भटका देते,
बहुतों के पास हैं पैसे, उन से क्या काम लेते?
समुद्र की तहों में, डुबोया है खुद को,
किनारे लगायेंगे, हमें विश्वास देते ।।

है खस्ता सी कश्ती, और,उस पर पुरानी,
न बच पायेगी उसकी तो अपनी निशानी ।
रहे आप सदियों से, डूबते डुबाते,
बना ई हजारों हैं झूठी कहानी ।

व्यसनों में सदियों से, हजारों में, लिप्त हैं,
बटोरें दोनों हाथों से, और कहते त्रिप्त  हैं।
मिलेगा संतोष धन क्या ऐसे में किसी को?
मन और मस्तिष्क जिनके सदा से ही रिक्त हैं?

डा० धनी

रिस्ते जख्म

दबंग और पाखणडी की भावना है?
इधर जो मासूम की भी तो कामना है?
नशे में जो ताकत की, रहते उबलते,
अब निहत्थे व हथियारबन्द का सामना है?

चलाई  हजारों बरस तानाशाही,
मचाई उन्होंने है फिर से अब तबाही।
वही लोग नशे में हैं गल्तान ऐसे,
जिन्हें सरकार, पुलिस, जज न देते दिखाई ।।

कहां हैं मुसोलिनी, स्टालिन व हिटलर?
है कायम क्या उनका? कोई एक बटलर?
न इतराओ इस कद्र, है हुस्न भी यह फानी,
हडप लेगी दो दिन में ही वो सब क्लर।।

हकीकत न भूलो,  तुम औकात की अपनी!
है बन जाती यह भी, वक्त पाके ठगनी,
न गीता का ज्ञान है, किसी की बपोती,
न इक और महाभारत में है देर लगनी।।

डा० धनी

कूटनीति

हो सामाजिक समस्या, तो साधन है राजनीति,
हो भेजना परलोक तो, धर्म, सदाचार, नीति ।
हैं हथकण्डे भी दोनों के, प्रकटत: अलग ही,
इक के हैं वैर विरोध, दूजे का झूठी प्रीति ।।

श्रद्धालुओं के समूह भी, हैं देखने को न्यारे,
मगर खींचातान के समान हैं नजारे ।
विरोधियों के आकर्षण के,इंतजाम हैं बेढब,
प्रलोभन की खातिर, पंडाल हैं निखारे ।

यहां अपनों को सारे, लताडे हैं जाते,
बनाते हैं रहते, दूसरैं से नाते।
तडपते रहें मोके को हैं ये बरसों,
गैरों में बांटें जूठन, यूंही आते जाते।।

दें गैरों को निमन्तरण, पर अपनों को लताडें,
हों गैरों से बगलगीर, और अपनों को पछाडें।
अजीब है अपने पराये का यह खेल भी,
परायों से कानाफूंसी, पर अपनों पे दहाडें ।।

डा० धनी

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