Tuesday, June 28, 2022

क्यों डॉ. भीमराव आंबेडकर जी की पुस्तकों की बिक्री कम हो गई? - निखिल सबलानिया (Nikhil Sablania)


यदि आप डॉ. आंबेडकर जी को चाहते हैं और हिंदी पढ़नी आती है तो यह लेख पूरा अवश्य पढ़ें। घंटों वीडियो देखने या गाने सुनने से अच्छा है कि इस लेख को पढ़ें तो डॉ. आंबेडकर जी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी और आपकी सामाजिक सोच भी विकसित होगी। 


क्यों डॉ. भीमराव आंबेडकर जी की पुस्तकों की बिक्री कम हो गई? - निखिल सबलानिया (Nikhil Sablania) 


हमारे प्यारे बाबासाहेब जी की विचारधारा का पुस्तकों द्वारा प्रचार करना समाज को जागृत करने का एक अभियान था जो समाज के कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा शुरू किया गया जो कि अब शिथिल पड़ रहा है। आईए जानते हैं उन कारणों को जिनके कारण इस विश्वव्यापी अभियान में कमी आई। 


सबसे पहले बात उन संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों की करी जाए जो हर चीज में केवल आर्थिक फायदा देखते हैं। मेरे पास तीन डिग्रियां हैं। बााबासाहेब जी की पुस्तकें बेचना कोई कारोबार नहीं था बल्कि कई फायदे के कामोंं को छोड़ कर सामाजिक चेतना के काम को करना था। इसलिए इस लेख का कोई आर्थिक अर्थ न निकालेंं और गंभीरता से पढ़ें।


वर्ष 2008 तक मैं 29 वर्ष का हो चुका था और एक हिंदी फिल्म, एक डाक्यूमेंट्री फिल्म, शाॅर्ट फिल्म का निर्माण कर चुका था और स्टार टीवी नेटवर्क के लिए रिएलिटी शो भी निर्देशित कर चुका था। चूंकि मेरी फिल्म का निर्माण मेरे अपने शहर दिल्ली में हुआ था और तब मैं मुंबई में काम कर रहा था इसलिए दिल्ली और मुंबई आना जाना शुरु हुआ। उस समय सोशल मीडिया भी आ चुका था और मैंने डॉ. आंबेडकर जी को पढ़ना शुरु किया और उनके विचारों को पढ़ कर लोगों तक पहुंचाने के लिए फेसबुक पर पोस्ट करना शुरू किया। मेरे पोस्ट अंग्रेजी में होते थे। मैंने देखा कि हिंदी में लोगों तक डाॅ. भीमराव अम्बेडकर जी की बातें पहुंचानी चाहिए। पर उनकी लेखन सामग्री बहुत विशाल थी। उसे न तो आॅनलाईन पढ़ना संभव था और न ही उसे बार-बार फेसबुक पर पोस्ट कर सकते थे। मैंने सबसे पहले डॉ. आंबेडकर जी की पुस्तकों का यूटयूब पर चैनल बनाया और पुस्तकों के वीडियो भी बना कर डाले। पर पुस्तक की सुविधा और उपयोगिता उन माध्यमों में नहीं है। इसलिए ही पुस्तकों को लोगों तक पहुंचाना ही सही लगा। उसी समय मैं डॉ. आंबेडकर जी से इतना प्रेरित हुआ कि दिल्ली विश्वविद्यालय से विधि में भी स्नातक कर ली। कुछ अन्य कारण भी थे स्नातक करने के पर उनकी प्रासंगिकता इस लेख में बताना जरूरी नहीं है।


तो ऐसे शुरु हुआ डॉ. आंबेडकर जी की पुस्तकों की बिक्री का वह आॅनलाईन काम जिसे सबसे पहले मैंने समाजिक चेतना के वशिभूत हो कर शुरू किया था। पर कुछ वर्षों पहले ही अचानक इसमें अवरोध पैदा होने लगा। यह अवरोध बाहरी और आंतरिक दोनों हैं और इन्हें जरुर पढ़ें। मैं इन्हें बहुत पहले से आपसे साझा करना चाहता था। पर मुझे लगता था कि लोग मेरी बात को शायद स्वीकृत नहीं करेंगे। वे इसमें मेरी

व्यापारिक मंशा देखेंगे। इसलिए मैंने ऊपर साफ कर दिया है कि डॉ आंबेडकर जी की पुस्तकें बेचने के पीछे मेरी कोई व्यापारिक उत्तेजना नहीं थी। मैंने तो यह कार्य तब शुरू किया जब मेरे लिए मीडिया में कार्य के अवसर खुल चुके थे। 


पुस्तकों के रिसर्च से लेकर प्रकाशन और मार्केटिंग और सेल्स तक करोड़ों रुपयों का खर्चा आता है। इसलिए यदि मुनाफा न हो और बिक्र ही न हो तो कैसे आप विचारधारा का प्रचार भी करेंगे। कुछ नासमझ या बेवकूफ या ज्यादा होशियार लोग कहते हैं कि पुस्तकों के डिजिटल रुप वितरित किए जाएं। ऐसे लोग खुद कितनी डिजिटल पुस्तकें पढ़ते हैं? पुस्तकों के शोध, टाईपिंग, प्रूफ रीडिंग और आॅफिस मैनेजमेंट का खर्चा कहाँ से आएगा? नए लेखकों, अनुवादकों, और स्टाफ को आमदनी कहाँ से मिलेगी? पुस्तकें पढ़ने वाले एक डिजिटल गैजेट की कीमत ही पंद्रह से बीस हजार रुपये है। ऐसे गैजेट कभी भी खराब हो सकते हैं। इतने रुपये में तो घर में एक लाईब्रेरी बन सकती है। गैजेट्स बिजली पर निर्भर होते हैं जबकि पुस्तकें बिना बिजली के पढ़ी जा सकती हैं और सही से संभाल कर रखें तो वर्षों तक सुरक्षित रहेंगी और आनेवाली पीढ़ी के हाथों और दिमाग में भी जाएगी। चलिए अब आपको वे कारण बताता हूँ कि कैसे समाज की बौद्धिक क्रांति की मुहिम में अवरोध पैदा हुए।


1. हिंदी और इंग्लिश में एक ही नाम से चलाऐ जाने वाले दो न्यूज़ चैनल हैं जिन्हें कुछ पढ़े लिखे आंबेडकरवादी बड़ी ऊंची दृष्टि से देखते हैं कि मानो ये उनके मन की बात कहते हैं। इनमें से एक चैनल का एक रिपोर्टर है जिसे भी ऐसी ही दृष्टि से देखा जाता है। एक बार वह डॉ. आंबेडकर जी के जयन्ती समारोह में संसद मार्ग गया। उस दिन वहाँ बहुजन साहित्य बड़े पैमाने पर सेल होता है। जातिवादी लोग सीधे नहीं लड़ते। न ही वे एक ही पीढ़ी में जातिवाद के जहर से मुक्त हो चुके हैं। वे चालाकियां तलाशते हैं कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। उनका दिमाग यह खोजता है कि डॉ. आंबेडकर जी के विचारों को भी मार दें और उन पर आंच भी नहीं आए। वे इतने शातिर हैं कि हम से हमारा सबकुछ छीन लेते हैं और हमें ऐसे अपना कायल बना देते हैं जैसे कोई जादूगर अपने दर्शकों को। और हम अक्सर अपने उद्धारक जैसे बाबासाहेब जी या अपने मार्गदर्शकों पर ध्यान नहीं देते। बुद्धिजीवी हमारे बहुजन समाज या उनके परिवार में कहीं कोई स्थान नहीं रखते। उन्हें पागल या बेवकूफ करार कर दिया जाता है। मैं आगे उस रिपोर्टर के षडयंत्र का पर्दाफाश करूं इससे पहले एक उदाहरण देना चाहूंगा जो बहुजन समाज की मानसिकता बताते हैं। अरविंद अदिगा ने एक नाॅवेल लिखा था 'वाईट टाईगर' जिसे बुकर मेल प्राईज़ मिला था। बड़ा सटीक नाम है इस नाॅवेल का। वाईट टाईगर उस सफेद बाघ को कहतें हैं जो वर्षों में कभी-कभार ही पैदा होता है और दुर्लभ होता है। जैसे हमारे डाॅ आंबेडकर जी। इस नाॅवेल में लेखक एक ऐसे व्यक्ति की कहानी बताता है जो निचली कही जाने वाली जाति में जन्म लेता है। वह कोशिश करता है कि उसके परंपरागत शोषणकारियों का अपनी सेवा और ईमानदारी से दिल जीत ले। पर वह पाता है कि शोषणकारियों की आज की पीढ़ी भी उनके पहले वालों की जैसी ही है। चाहे वे कितना ही अपने को समानता और मानवता के उच्च आदर्शों वाला बताए, समय आने पर वे अपने संरक्षण के लिए उनकी ही आहुति देते हैं जिन्हें वे नीची जाति का मानते हैं। पर नाॅवेल का प्रमुख किरदार वाईट टाईगर निकलता है। उसमें सफेद बाघ जैसा दुर्लभ साहस होता है जिससे कि वह न केवल अपने को उनसे मुक्त ही करता है बल्कि उनके बराबर खुद का भी आर्थिक विकास करता है। इसी नाॅवेल पर इसी शीर्षक से एक फिल्म भी बनी है। उसी फिल्म का एक संवाद बहुजन समाज की मानसिकता प्रकट करता है। संवाद है कि,... अगर तुम इनके हाथ में गुलामी से आजादी की चाभी भी दोगे, तो ये तुम्हारे मुँह पर फेंक कर चले जाएंगे... पर ये अपने मालिकों (अपने शोषणकारियों) को नहीं छोड़ेंगे। यही कारण है कि सदियों से जाति की प्रताड़ना सहने के बाद भी आज तक एक होकर अपने शोषणकारियों से लोहा लेना तो दूर, अभी तक कोई खास मानसिक परिवर्तन भी नहीं कर पाए। जिस तरह से आत्म सुरक्षा के लिए खुद को तैयार नहीं करने वाले कबीलों और राज्यों का पतन उनके द्वारा कर दिया गया जिन्होंने अपने युद्ध कौशन का विस्तार किया, वैसे ही आज उनका पतन निश्चित है जो अपनी बौद्धिकता का विस्तार नहीं कर रहे, क्योंकि आज का शत्रु बहुत चालाकी से आपकी मानसिक और बौद्धिक अक्षमताओं का फायदा उठाता है। तो न्यूज़ चैनल के उस रिपोर्ट ने जब देखा कि किस प्रकार पुस्तकों के माध्यम से बहुजनों की वैचारिक क्रांति का कार्यक्रम चल रहा है तो फिर उसने क्या किया?


संविधान को पिछले कुछ वर्षों में किसी धार्मिक किताब का दर्जा दिया जा रहा है। बहुजन समाज संविधान को वर्षों से आदर देता आया है क्योंकि उसमें डाॅ. आंबेडकर जी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। पर उनका पहला प्रेम डाॅ. आंबेडकर जी थे। और चूंकि संविधान उनके द्वारा लिखा गया था जिसमें पिछड़े वर्गों की उन्नति की व्यवस्था थी इसलिए संविधान को एक महत्वपूर्ण दस्तावेज माना जाता है। पर संविधान एक सौ पांच बार बदला गया। भारत में हर नागरिक के पास ज़मीन हो, को संविधान में निहित मूलभूत अधिकारों से हटा दिया गया। संविधान बदलने की प्रक्रिया कई विकसित देशों के मुकाबले भारत में काफी सरल है। संविधान देश चलाने की एक मैनुअल की तरह है जो बाध्यताओं व निर्देशों का लिखित स्वीकृति दस्तावेज है। संविधान में लिखे अनुच्छेद पढ़ लेने से भी उनकी निर्णायक जानकारी नहीं मिलती। उसके लिए कई अनुच्छेदों पर भारतीय न्यायालयों में हुई बहसों को और निर्णयों को पढ़ना पढ़ता है। यह कार्य पेशेवरों का ही होता है और किसी विशेष कोर्ट केस की परिस्थिति में ही काम आता है। इसका डॉ. आंबेडकर जी की लेखनी से कोई विस्तृत महत्व नहीं है। संविधान में डाॅ. आंबेडकर जी के विचारों का पता नहीं चलता। उनके लिए आपको डाॅ. आंबेडकर जी की लिखित पुस्तकों और लेखों को पढ़ना होता है।


उस दिन डॉ. आंबेडकर जी की जयन्ती से वापिस आकर उस रिपोर्टर ने टीवी पर एक विशेष कार्यक्रम बनाया और संविधान को महिमामंडित कर दिया। क्योंकि उसे पता था कि संविधान का बहुजन आदर करते हैं। पर बहुजन यदि डॉ. आंबेडकर जी को पढ़ेंगे तो उनमें क्रांति आएगी। संविधान यदि पढ़ेंगे तो चूंकि वह जटिल कानूनी कलम से लिखा गया है इसलिए समझ नहीं आएगा और चिढ़ कर आगे नहीं पढ़ेंगे। उनका बहुजन साहित्य से मोह भंग हो जाएगा। उस टीवी न्यूज़ कार्यक्रम के बाद से लेकर आज तक निन्यानवे प्रतिशत लोग जो पहले डाॅ. आंबेडकर जी की लिखित पुस्तकों के सैट के लिए फोन करते थे अब सिर्फ संविधान के लिए फोन करते हैं। पहले जहाँ निरंतर डॉ. आंबेडकर जी की पुस्तकों के प्रकाशन चल रहे थे वहीं संविधान का प्रकाशन बढ़-चढ़ कर होने लगा। जिन्हें सिर्फ मुनाफे से मतलब था उन पूंजिपतियों ने लोगों के इस बदलते रुझान को भुनाना शुरु कर दिया। मुनाफा आ रहा था फिर चाहे मिशन से भटक जाएं। मैंने कई लोगों को फोन पर यह बात समझाई। पर मुझे लगा कि इस बात को आने वाली पीढ़ियों को भी बताना चाहिए, इसलिए अब इसे कलमबद्ध कर रहा हूँ।


2. दूसरी गिरावट डाॅ. आंबेडकर जी की पुस्तकों की बिक्री में तब आई जब पुस्तकों का स्थान नीले गमछे ने ले लिया। भीम आर्मी का उदय बहुजन समाज पार्टी की निष्क्रियता का परिणाम था। लोग किसी अन्य उभरते हुए दल से जुड़ना चाहते थे जो उनके ही लोगों द्वारा बनाया गया हो। पर जिस देश में बेरोजगारी भयंकर है और जिस देश में राजनैतिक पद सोने की खान बनते हैं उस देश में मौकापरस्त राजनैतिक अवसर बहुत मायने रखते हैं। यही कारण था आम आदमी पार्टी की सफलता का। पर जहाँ आम आदमी पार्टी के संस्थापकों और उससे जुड़ने वालों को अपनी सामाजिक स्थिती के बोध के साथ उसे बढ़ाने या कायम रखने की चेतना थी वहीं भीम आर्मी से जुड़ने वाले बहुत से युवाओं को अपनी सामाजिक स्थिति का बोध तो था पर सही दिशा देने वाली मानसिकता नहीं थी। बहुतों ने पेशेवर शिक्षा तो पाई थी पर कभी डाॅ. आंबेडकर जी को भी नहीं पढ़ा था। हर राजनीतिक मूवमेंट में अलग-अलग अंग होते हैं जो आपस में जुड़े होते हैं। कोई सेनापति बिना किसी पूर्व योजना के बिना किसी युद्ध पर नहीं जा सकता। और न ही कोई सैनिक बिना प्रशिक्षण और अभ्यास के युद्ध लड़ सकता है। अब युद्ध हथियारों का नहीं है। हथियारों की और हथियारों के युद्ध की सीमाएं होती है। हाल ही में रूस दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सैन्य शक्ति होने के बाद भी उस युद्ध में यूक्रेन से उलझा हुआ है जिसे वह चंद दिनों में विजयी होने की कामना कर रहा था। अब युद्ध बुद्धि से लड़े जाते हैं। जैसे एक मिसाइल को वैज्ञानिक विश्लेषण करके मिश्रित धातुओं और तकनीक से लेस करके दागा जाता है वैसे ही बुद्धि को विचारों से तैयार किया जाता है। बहुजन समाज की यह बौद्धिक तैयारी इसलिए ही है कि वे एक होकर अपने भले या बुरे का निर्णय ले। इसलिए ही डॉ. आंबेडकर जी की पुस्तकों को लोगों तक पहुंचाया जाने का काम शुरू किया गया। पर भीम आर्मी से जुड़ने वालों में चाहत तो बहुत थी कुछ करने की पर उन्होंने अभी तक खुद को बौद्धिक रुप से तैयार नहीं किया था। साथ ही ऐसे लोग भी उस संस्था से जुड़ गए जो राजनैतिक अवसर तलाश रहे थे। भीम आर्मी और फिर कई अन्य संस्थाओं ने भी नीला गमछा गले में डाल कर अपने को स्थापित करना चाहा। इन सबका परिणाम यह हुआ कि लोग डाॅ. आंबेडकर जी की पुस्तकों के लिए नहीं बल्कि सिर्फ नीले गमछों के लिए फोन करने लगे।


3. एक अन्य कारण है कि कुछ प्रकाशकों ने एमाॅज़ाॅन पर सेल करना शुरु कर दिया। जब मैंने उनसे बात की कि जब मैं आॅनलाईन बेच रहा हूँ और सबसे पहले आॅनलाईन लोगों तक डॉ. आंबेडकर जी की पुस्तकें ले कर गया तो मुझेसे पूछ तो लेते। बड़ी कंपनियों के पास बड़ा पैसा होता है। वे कैश आॅन डिलीवरी देते हैं। हम भी देते थे पर लोग पुस्तकें आॅर्डर करके वापिस कर देते थे। इसलिए हम पहले पैसे लेने लगे। हमने पुस्तकों की अपनी वेबसाइट nspmart.com पर हर प्रकार के पेमेंट अॉप्शन का भी प्रबंध किया। हजारों रुपया लगा कर वेबसाइट बनाई। पुस्तकों पर छूट भी दी। कुछ पुस्तकों पर अतिरिक्त चार्ज भी लिया यह बता कर कि इसे मिशन में दान समझ कर दें। कई लोगों को वेबसाइट के काम पर भी लगाया। पर लोग कहने लगे कि एमाॅज़ाॅन वाले पैसे पुस्तकें घर आने पर लेते हैं। उन्हें कई बार अपनी दिक्कतें बताई। उन्हें समझाया कि एमाॅज़ाॅन से खरीदेंगे तो इससे डाॅ. आंबेडकर जी के मिशन का काम कमजोर पड़ता है। क्योंकि पैसा हमारे पास आएगा तो हम मिशन के लिए काम करेंगे। साथ ही हमसे संपर्क बनेगा तो संगठित होंगे। पर लोग कहाँ दूर की सोचते हैं। जब प्रकाशन करने वालों ने ही नहीं सोचा तो आम इंसान जो ग्राहक मात्र बन चुका है वह कैसे सोचेगा। ऐसे प्रकाशक भले आज छोटे लालच के लिए एमाॅज़ाॅन पर बेच रहे हैं पर भविष्य में एमाॅज़ाॅन मुनाफे वाली पुस्तकें खुद ही प्रकाशित करने लगेगी और फिर ऐसे प्रकाशक मौजूदा व्यापार से भी हाथ धो बैठेंगे। 


4. एक अन्य और विसमयबोधक कारण है कि कई वर्षों में सरकार द्वारा सस्ती पुस्तकें निकालना। यह सस्ती लगने वाली पुस्तकें असल में बहुत महंगी होती है। एक तो यह जिस सरकारी प्रणाली से प्रकाशित होती है उसका खर्चा करोड़ों में होता है। यह पैसा हमारे ही टैक्स का होता है। हाल ही में सरकार ने मोटे पैसे से भवन बनाया और उसे आॅडिटोरियम बना दिया। पुस्तकों के आॅफिस का काम किराये की बिल्डिंग में शिफ्ट कर दिया। महाराष्ट्र में लगभग पेंतीस करोड़ का कागज खरीदा गया पर पुस्तकें नहीं छपी। कागज रखा-रखा सूख कर खराब हो जाता है और वह पैसा बर्बाद हो जाता है। यदि सरकार के धन का एक प्रतिशत भी मुझे मिलता तो मैं सरकार से भी सस्ती पुस्तकें देता। सरकारी पुस्तकों के अनुवाद भी ऐसे होते हैं कि कई स्थानों पर या तो उलट बात ही लिखी होती है या कई अनुवाद अत्याधिक जटिल होते हैं। बाबासाहेब जी के भावों को भी सही प्रकार व्यक्त नहीं किया जाता। पर सबसे बड़ी बात लोग यह नहीं समझते कि वे सरकार पर निर्भर क्यों होते हैं। जब इंदिरा गांधी ने सिखों के हरमिंदर साहिब के गेट को आॅपरेशन ब्लू स्टार के बाद सरकारी आर्थिक सहायता से पुनर्निर्माण करने का प्रस्ताव रखा तो सिखों ने उसे नामंजूर कर दिया और खुद बनाया। दो प्रतिशत से भी कम सिख सारी दुनिया में गुरुद्वारों में रोज लंगर में भोजन वितरित करते हैं और बहुजन समाज इतनी विशाल संख्या में होने के बाद भी अपने उद्धारक डॉ. आंबेडकर जी की लिखित पुस्तकों के लिए असहाय और निर्भर है। अपने बुद्धिजीवियों को दुतकारने वाला समाज कैसे उन्नति कर सकता है? द्विज हिंदू मात्र इसलिए ब्राह्मणों को आगे नहीं करते क्योंकि वे केवल धर्म से प्रेरित हैं। बल्कि उन्होंने बौद्धिक कार्य उनको सौंपे हुए हैं और वे आपस में ईमानदार हैं और अपने बुद्धिजीवियों का भारण-पोषण करते हैं। उन्होंने हजारों संस्थाएं अपने बुध्दिजीवियों के लिए खोली हुई हैं। वे उन्हें प्रशासन और शिक्षा में बैठाते हैं। पर वे उनसे ईर्ष्या नहीं करते बल्कि उनका अहो भाव से आदर करते और उनकी बात मानते हैं। हाल ही में आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने जब मस्जिदों में मंदिर खोजने वाली मुहीम पर रोक लगाई तो एक अनुशासित सेना की तरह सभी द्विज हिंदू संगठनों ने इन मुद्दों पर चुप्पी साध ली। क्या ऐसा अनुशासन, ऐसी आपसी समझ, अपने बुद्धिजीवियों के प्रति ऐसा आदर बहुजन समाज में है जो चंद रुपये बचाने के लिए डॉ आंबेडकर जी के मिशन को भी ताक पर रख देता है?


यह चार प्रमुख कारण रहें हैं कि डॉ. आंबेडकर जी की लिखित पुस्तकों की बिक्री कम हो गई। अन्य कई छोटे कारण भी हैं जैसे नौकरीपेशा लोगों का बाबासाहेब जी को नहीं पढ़ना, बहुजन व्यापारियों का मुझे आर्थिक सहयोग नहीं मिलना, अधिकारियों में भी सामाजिक चेतना की कमी होना और राजनीतिक पार्टियों द्वारा बुद्धिजीवियों और बौद्धिक कार्य की अनदेखी करना। वर्षों पहले दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में बहुजन समाज पार्टी का कार्यक्रम था जिसमें मायावती जी को आना था। मैं कार्यक्रम में गया तो देखा कि मेरे एक बहुजन साहित्य के विक्रेता मित्र और कई अन्यों को गेट से बाहर कर दिया। ऐसा मायावती जी की सुरक्षा को लेकर हुआ होगा। वहाँ और भी हजारों कार्यकर्ता और नेता थे पर क्या उनमें से किसी में इतनी सोच नहीं थी कि बहुजन साहित्य के विक्रेताओं को बिक्री के लिए विशेष स्थान दिए जाएं। जिन द्विज हिंदुओं को बहुजनों ने नेता कोसते हैं वे अपने बुध्दिजीवियों को सरमाथे पर रखते हैं। क्या गीता प्रैस की पुस्तकों को बीजेपी, कांग्रेस, आप या आरएसएस के कार्यक्रमों से गेट के बाहर कर दिया जाता है? किस समाज की उन्नति होगी, जो बुद्धिजीवियों को सरमाथे बैठाता है या जो उनकी उपेक्षा करता है? 


कुछ लोग सोचते हैं कि एक पुस्तक में डॉ. आंबेडकर जी के सारे विचार पता चल जाए मानो कि पुस्तक कोई दवाई की गोली है कि खाई और काम हो गया। बाबासाहेब जी की लेखनी विस्तृत ही नहीं बल्कि विभिन्न विषयों पर भी है और उनका जीवन और कार्य तो और भी विस्तृत। असल में उन्होंने अपने जीवन का एक प्रतिशत समय भी व्यर्थ नहीं किया। बल्कि आम बुद्धिजीवी से कई गुणा अधिक समय दिया था। पढ़ना एक निरंतर प्रक्रिया है। आप स्कूल से काॅलेज तक केवल पेशेवर बनने की शिक्षा प्राप्त करते हैं। अन्य विषयों की आपको जानकारी नहीं होती और न ही जरुरत। पर सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक शिक्षा के लिए निरंतर कुछ समय रोज देना चाहिए। कभी इसका ध्यान दिया है कि मौजूदा मोदी सरकार किस प्रकार कितने मुद्दों पर निरंतर काम करती है। असल में हजारों संस्थाएं और लाखों बुद्धिजीवी मिल कर उनके लिए काम करते हैं, तभी आज वे इस मुकाम पर हैं कि उन्होंने सौ वर्षों पुरानी काँग्रेस को पछाड़ा। जीवन में कोई शाॅर्ट कट नहीं होता। 


कुछ लोग कहते हैं कि बहुजन समाज के पास पैसा नहीं है। मैं कहता हूँ कि गिनती करवा लो कि कितने लोग शराब की दुकानों में लाईन लगाते हैं और देख लो ये कौनसे वर्ग से आते हैं। नब्बे प्रतिशत बहुजन निकलेंगे। आप इन लोगों को शराब की दुकानों पर घेरो। वहाँ नुक्कड़ नाटकों और पर्चों से उन्हें प्रेरित करो कि वे शराब कम पी कर बाबासाहेब जी, रविदास जी, बुद्ध व कबीर और अन्य बुद्धिजीवियों की पुस्तकें खरीद कर पढ़ें। आप उनसे कहो कि शराब से ज्यादा ज्ञान का सेवन करें। पैसा है लोगों के पास पर कैसी भी सकारात्मक चेतना, अनुशासन, दृढ़ संकल्प और जीवन में बड़े उद्देशय नहीं हैं। 


डाॅ. आंबेडकर जी ने अधिकांश लेखन मंत्री बनने के बाद किया था। आज कोई मंत्री बनता है तो पहले अपनी तिजोरियां भरता है। पर बाबासाहेब जी की तिजोरी थी उनकी पुस्तकें और खजाना था उनके विचार जिन्हें उन्होंने मंत्री बनने के बाद तुरंत संग्रहित किया। वो विचारों का खजाना किसके लिए था? उन्होंने रूपये पैसे नहीं बल्कि जिन विचारों का खजाना एकत्र किया क्या उसे आपने लिया? क्या आप उस खजाने के संग्रह और विस्तार में अपना योगदान दे रहे हैं? क्या आप शराब की दुकानों में लाईन लगाने की जगह पुस्तकों के लिए लाईन में लगेंगे? दुनिया में कितना भी धन एकत्रित कर लें पर जिन चीजों पर वह खर्च कर दियि जाएगा उनकी सीमा निश्चित होगी और निश्चित लोगों में जा कर समाप्त हो जाएगा। पर विचार ऐसा खजाना है जो जितना फैलाओगे वह उतना ही बढ़ेगा। और डॉ. आंबेडकर जी ने उसी विचारों के खजाने को एकत्र किया आपके लिए। अब यह आप पर है कि आप उसे खुद संजोओगे या दूसरे पर निर्भर रहोगे और कितनी जल्दी गृहण करोगे।