Tuesday, October 23, 2018

भारत सरकार द्वारा प्रकाशित डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी के हिंदी वांग्मय (वॉल्यूम) का विश्लेषण -

प्रिय मित्रों, मैं जानता हूँ कि आप में से बहुत से लोग बाबा साहिब डॉ भीमराव अम्बेडकर जी की लिखित पुस्तकें, भाषण, व लेख आदि पढ़ना चाहते हैं। आप में से बहुत से लोगों ने केंद्रीय सरकार द्वारा प्रकाशित वांग्मय को खरीदा और पढ़ा होगा। पर आपने कभी उस अनुवाद का बाब साहिब जी की असली इंग्लिश की लेखनी से मिलान किया है ? यदि आप यह करेंगे तो पाएंगे कि सरकार द्वारा प्रकाशित वांग्मय में कितनी गलतियां हैं। कहीं-कहीं तो कुछ अनुवाद ही नहीं किया गया, कहीं-कहीं शब्द गलत हैं, या फिर ऐसे शब्दों को डाला गया है जो न तो प्रचलन में हैं और न ही उनके अर्थ आसानी से प्राप्त होते हैं। ऐसे में पाठक खुद को ठगा सा महसूस करता है। इसे पढ़ कर कोई बात समझ आए, इसकी जगह बहुत सी बातों के न समझ पाने के कारण कुंठा अवश्य पैदा होती है। कहीं-न-कहीं जानबूझ कर इस प्रकार का अनुवाद किया गया है। जहाँ तक इंग्लिश के संस्करण से यदि हिंदी के संस्करण की तुलना की जाए तो आप पाएंगे कि हिंदी में इंग्लिश संस्करण का आधा हिस्सा भी अनुवादित नहीं किया गया है। डॉ. अम्बेडकर जी की अंतिम पुस्तक 'बुद्ध और उनका धम्म', उनके ईसाई धर्म पर लेख आदि कई लेखों को हिंदी संस्करण में शामिल नहीं किया गया है। इनकी कीमत कम भले हो परन्तु इतनी त्रुटियों को देखते हुए पैसा, समय और उत्साह व्यर्थ ही जाता है।

इसलिए आप यदि सही अनुवाद पढ़ना चाहते हैं तो हमारे द्वारा प्रकाशित की जा रही और बेची जा रही डॉ. अम्बेडकर जी की अच्छे अनुवाद वाली असली पुस्तकें ही पढ़ें। आप इन्हें इस वेबसाइट पर खरीद सकते हैं अथवा इस फोन नंबर पर संपर्क करके प्राप्त कर सकते हैं - M. 8851188170, 8447913116.
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Wednesday, October 17, 2018

डॉ. आंबेडकर के सच्चे अनुयायी सर झुकाने वाले नहीं हो सकते

मुझे 2014 के चुनावों से पहले आर. एस. एस. से कई बार फोन आया कि मैं उनसे जुड़ूँ। पर मैं नहीं गया। पर मैं उनकी लगन की प्रशंसा करता हूँ। वह अपना काम बहुत लगन से करते हैं। मैंने 2009-10 में बाबा साहिब डॉ. आंबेडकर जी की पुस्तकें पढ़नी शुरू की। उनकी पुस्तकें पढ़ने के लिए मुझे हमारे शिक्षक और हिंदी फिल्मों के मशहूर निर्देशक माननीय कमल स्वरूप जी ने प्रेरित किया था जो कि स्वयं ब्राह्मण हैं। बाबा साहिब जी लेखनी से मैं इतना प्रभावित हुआ कि तब से लेकर आज तक, कोई सात सालों से भी अधिक समय से बाबा साहिब जी के विचारों को लेखों, वीडियों और पुस्तकों के माध्यम से लोगों तक पहुंचा रहा हूँ। इस बीच मैंने बाबा साहिब जी से ही प्रेरित हो कर वकालत की पढ़ाई भी पूरी की। परन्तु मेरी व्यक्तिगत आर्थिक स्थिति बहुत निम्नन रही और ऐसी है भी। पर जब मैं यह देखता हूँ कि मैंने यदि यह नहीं किया होता तो और कौन करता ? जब मैं रुपयों की तुलना इस कार्य से करता हूँ तो मेरे मन में ख़ुशी होती है कि मैंने बाबा साहिब जी के विचारों को लोगों तक पहुँचाया। हालाँकि धन के लिए मैं फिल्मों में काम करने अथवा कोई नए व्यवसाय करने की भी सोच रहा हूँ। परन्तु धन अथवा सत्ता के लालच के लिए मैं बाब साहिब जी के मिशन को बर्बाद नहीं कर सकता। क्या आप अपने पिता के हत्यारों से हाथ मिला सकते हैं और कह सकते हैं कि सत्ता की चाबी आपके हाथ में आ गई ? नहीं ! ऐसे करके आप खुद को दूसरे के हाथ में दे रहे हैं, इससे सत्ता की चाबी दूसरे के हाथ में जाएगी। पिता की हत्या का अर्थ है उनके विचारों की हत्या। बाबा साहिब जी के विपरीत विचारधारा वाले संगठनों में जाना उनके विचारों की हत्या करना है जो पिता की हत्या के समान है। हमारे लोग बाबा साहिब जी की वजह से कुछ बन जाते हैं तो उनकी विचारधारा से हट कर विरोधियों के खेमों में लालच के लिए चले जाते हैं। मैं आर. एस. एस. (बीजेपी) और काँग्रेस को भी यही कहूंगा कि वह ऐसे लोगों को लें पर सावधान रहें। जो बाबा साहिब के नहीं हुए वह उनके भी कैसे होंगे ? वैसे भी विभीषण का किरदार तो भारतीय साहित्य में इतना गहरा लिखा है कि वह समाज का हिस्सा बन गया है। हमारे लोग आर. एस. एस. (बीजेपी) और काँग्रेस में जा कर विभीषण का ही कार्य करते हैं। ऐसे लोग केवल लालची हैं। एक सच्चा सिपाही मर जाता है पर अपना सर झुकाता नहीं हैं। बाबा साहिब जी का सच्चा अनुयायी सर काटनेवाला होता है पर सर झुकानेवाला नहीं होता। और जिस दिन हमारे लोगों (अनुसूचित जाति, जनजाति, और पिछड़े समाज) ने सर उठाना सीख लिया, सत्ता ही नहीं, बल्कि आनेवाली सभ्यता भी हमारी ही होगी। यहाँ सर उठाने और कटाने का अर्थ है अपनी विचारधारा पर अडिग रहना और न झुकना। पाठक शाब्दिक अर्थ नहीं बल्कि आंतरिक अर्थ पर ही ध्यान दें। - जय भीम, जय भारत, नमो बुद्धाय - निखिल सबलानिया

Tuesday, October 16, 2018

डॉ भीमराव आंबेडकर ने बताई थी रूपये की समस्या और अब समस्या है कि...

डॉ भीमराव आंबेडकर ने अपनी पी. एच. डी. की थीसिस में बताया था कि कैसे अचानक ही भारत के रूपये का मूल्य एकदम गिर गया था और आज तक वह उठ नहीं पाया। क्या थी तब की और आज की समस्या? पढ़ें पूरा लेख।
डॉ भीमराव आंबेडकर जैसे विद्यावान लोग विश्व में विरले ही होते हैं। एक तरफ उन्होंने भारत का संविधान लिखा और दूसरी तरफ वह एक महान अर्थशास्त्री भी थे। अपने विद्यार्थी काल में ही उन्होंने अपनी पी. एच. डी. की थीसिस “रूपये की समस्या (उद्भव और समाधान)” (The Problem of Rupee) में रूपये की समस्या के बारे में लिख कर तब की ब्रिटिश सरकार को हैरान कर दिया था। उनकी वह थीसिस उत्तम दर्जे का अर्थशास्त्र का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। अफ़सोस कि भारत में उसे बहुत कम लोगों ने पढ़ा है, अन्यथा उसे भारत की एक मत्वपूर्ण कृति माना जाता। परन्तु उन्होंने जो लिखा था उस पर विदेशों में शोध हुआ और अमेरिका जैसे उन्नत राष्ट्र के लोगों को वह सब बातें बाद में समझ में आई जो कि उन्होंने आज से लगभग सौ साल पहले लिखी थी। पर अफ़सोस कि भारत के लोग अभी तक उन तथ्यों को नहीं समझे हैं और उन्हें स्कूल अथवा कालेजों में पढ़ाया भी नहीं जाता।
संक्षिप्त में डॉ आंबेडकर ने यह बताया है कि किस प्रकार मुद्रा का मान अचानक ही स्वर्णमान पर आधारित कर दिया गया अर्थात एक देश उतनी ही मुद्रा निकाल सकता है जितना कि उसके पास सोना हो। उस समय तक भारत एवं चीन समेत अनेक राष्ट्र चांदी के मान पर चलते थे। उस समय सोने और चांदी का मूल्य लगभग सामान था। अचानक एक ऐसी धातु को मुद्रा का मान बना दिया गया जो कि अल्प मात्रा में थी। ऐसा अमरीका के दबाव में किया गया था क्योंकि उसके पास तब अच्छे स्वर्ण भण्डार थे। परन्तु भारत के पास स्वर्ण प्रचुर मात्रा में नहीं था। और साथ ही अमरीका, ब्रिटेन, फ़्रांस आदि आज के विकसित कहलाने वाले यूरोपियन देशों ने यह शर्त भी लगा दी कि व्यापार का भुगतान वे स्वयं चांदी से करेंगे परन्तु खुद सोना लेंगे। इसके लिए भारत को अपनी चांदी बेच कर भुगतान के लिए सोना प्राप्त करना पड़ता था जिससे कि उन देशों को भुगतान किया जा सके। ऐसे न सिर्फ पहले से ही अल्प मात्रा में स्वर्ण और कम हुआ और साथ ही भुगतान के लिए सोना खरीदने से चांदी भी कम हो गई। फिर स्थिति यह आई कि सोना न होने से देश की मुद्रा का मूल्य निरंतर घटता गया। आप इसे विस्तार से डॉ आंबेडकर की थीसिस में पढ़ सकते हैं।
तो यह तो थी कल की बात और आज तक रूपये का मूल्य डॉलर और यूरोपीय व ऑस्ट्रेलिआई आदि मुद्राओं के मुकाबले उठ नहीं पाया है और निरंतर घटता ही जा रहा है। आखिर क्या कारण है कि हमारी मुद्रा का भाव इतना नीचे है? आईए समझते हैं। ज़रा इन प्रश्नों के उत्तर मन में दीजिए : किसी भी देश की मुद्रा क्या है? कौन है जो मुद्रा को समाज में लेनदेन का साधन बनाता है? कैसे इस मुद्रा का मूल्य बढ़ता या चढ़ता है? यूँ तो इन प्रश्नों के उत्तर देने के लिए अर्थशास्त्र की बहुत सी जटिलताओं से रूबरू होना पड़ेगा, फिर भी इनको संक्षिप्त में और सरलता से इस प्रकार समझें। मुद्रा एक साधन है (एक ऐसी चीज़ है) जिससे सम्पत्तियों का हस्तांतरण (ट्रांसफर) होता है, अर्थात सम्पति एक हाथ से उस हाथ में चली जाती है जो मुद्रा देता है। "मुद्रा को साधन वह बनाते हैं जिनके पास पहले से संपत्ति प्रचुर मात्रा में होती है या उनका एकाधिकार होता है।" जैसे कि राजा या देश की सरकारें। पहले के समय में राजा और बड़े व्यापारी भी अपनी मुद्रा निकालते थे। अब यह देशों तक ही लगभग सिमित है। संविधान द्वारा ऐसे कानूनों का निर्माण किया जाता है जिनके द्वारा सरकार का एकछत्र अधिकार बन जाता है। परन्तु सरकार और कोई नहीं बल्कि लोगों का एक समूह है जैसे आज के सांसद और विधायक। यह समूह अपने कार्यों को कर्मचारियों द्वारा करवाते हैं जिसमे सेना से लेकर स्कूलों तक के कर्मचारी शामिल होते हैं। यह सब देश के सब संसाधनों पर पहले कब्जा करते हैं और फिर एक व्यापारी समूह के साथ मिलकर उन संसाधनों से उत्पादन करवाते हैं अथवा उन्हें सीधे बेचते हैं जैसे ज़मीन। अपने कर्मचारियों को सरकार निम्नतम वेतन देती है। और इसे सरकारी नौकरियों का नाम दिया जाता है जिसका कि अभाव होता है। दूसरी तरफ होते हैं वह बड़े उत्पादक जो संसाधनों को वस्तुओं में बदलते हैं। यह वेतन इस पर निर्धारित करते हैं कि श्रमिक की उपलब्धता कितनी है। चूँकि एक महँगी शिक्षा वाला श्रमिक जैसे डॉक्टर या इंजीनियर बनना सबके बस की बात नहीं, इनका अभाव होने से इन्हें वेतन सरकारी कर्मचारियों के बराबर अथवा उनसे थोड़ा ज्यादा मिल जाता है। जब विदेशी कंपनियों में लोग जाते हैं तो उस कंपनी के वयवसाय और देश के आधार पर यह वेतन होता है। परन्तु जो श्रमिक महँगी शिक्षा का खर्च नहीं उठा पाते उनका वेतन सरकार में दिए जानेवाले वेतन से भी कम रह जाता है। बड़े उत्पादक जैसे-जैसे लोगों तक अपनी वस्तुएं पहुंचाते हैं इससे निजी क्षेत्र बढ़ता है जिसमें अब विक्रेता और कुछ सेवाएं देनेवाले रह जाते हैं जैसे कि ट्रांसपोर्टर। उत्पादक विक्रेताओं को बड़ा हिस्सा देते हैं जिससे कि यह वर्ग बिक्री के कार्य से चिपका रहे। यह बिक्रेता और भी कम वेतन देते हैं और इनके द्वारा अर्जित मुद्रा के अधिकांश भाग में से कम-से-कम वेतन ही श्रमिकों तक पहुँच पाता है। अब रह गए वह जो मात्र शारीरिक श्रम पर ही आश्रित हैं, तो उनके पास तो मुद्रा का कम-से-कम हिस्सा ही पहुंचता है क्योंकि उनके पास उतने संसाधन ही नहीं होते जिससे कि वह मुद्रा का अधिक हिस्सा कम श्रम किए बिना अपने तक मोड़ पाएं। "मुद्रा की इस सारी प्रक्रिया को बैंकों द्वारा संचालित किया जाता है।" बैंक बड़े उत्पादकों को मोटे-मोटे लोन कम ब्याज पर देते हैं, वहीं माध्यम वर्ग को छोटे-से-छोटा लोन बड़ी ब्याज दर पर देते हैं, और गरीब को तो विरले ही लोन देते हैं। असल में बैंक और सरकारें यह बात जानती हैं कि धन के द्वारा संपत्ति का निर्माण किया जा सकता है, और यदि अधिक लोग इस काम में निपुण होकर संपत्ति का निर्माण कर लेंगे तो वे मौजूदा उत्पादकों और सरकार के लिए सस्ते में उपलब्ध कैसे होंगे? मौजूदा परिस्थिति में नए आविष्कार जो कि मानव के जीवन को सरल बना सकते हैं, उन्हें साकार रूप देना केवल बड़े उत्पादकों और सरकार (नेताओं के समूह) के पास ही होता है और वह उनको तब तक अंजाम नहीं देते जब तक कि उन्हें उसमें अधिक शोषण की संभावना नज़र नहीं आती, अथवा उनके पास और कोई दूसरा विकल्प नहीं रह जाता। जैसे बिजली से चलनेवाली कार का निर्माण अस्सी वर्षों पूर्व हो चुका था और उसमें सुधार करके आज तक उसे मुख्य वाहन नहीं बनाया गया और पेट्रोल व डीज़ल के इंजनों का ही प्रयोग वाहनों में किया जाता है क्योंकि सरकार और उत्पादक तब ही यह जान गए थे कि बिजली के इंजन से वह लोगों का वह शोषण नहीं कर पाएंगे जो कि तेल बेच कर किया जा सकता है। ठीक वैसे ही जैसा कि अमरीका ने मुद्रा के मान को स्वर्णमान बनाते हुए सोचा होगा। "अब महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मुद्रा का भाव कैसे बढ़ता या चढ़ता है?" इसका उत्तर सरल है कि आपके पास कुछ ऐसा होना चाहिए जो कि लोगों की आवश्यकता हो। आप उन्हें दें और बदले में वे आपको कुछ दें। भारत के रूपये का मूल्य भले ही विकसित देशों की मुद्रा के मुकाबले बहुत कम है, पर भारत के भीतर इसका महत्त्व बहुत है। क्योंकि भीतर यह विरला है। यह है सरकार, उत्पादकों, विक्रेताओं और बैंकों के पास। शेष वर्ग चाहे वह सरकारी कर्मचारी हो या साधारण श्रमिक, वह रूपये के लिए जूझता है। वह जूझ रहा है क्योंकि उसे यह मिल नहीं रहा। उसे यह मिल नहीं रहा क्योंकि यह एक चौकड़ी (सरकार, उत्पादकों, विक्रेताओं और बैंकों) में अधिक घूम रहा है और उन्हें श्रम देने देने लिए ही थोड़ा बहुत दिया जाता है। आप इस चौकड़ी के हाथों से सारी मुद्रा निकाल लीजिए। तब इसके पास क्या रह जाता है? यह चौकड़ी मुद्रा को तुरंत असंवैधानिक घोषित कर देगी। अर्थात वस्तुएं लेने के साधन का अब कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। रुपया कागज़ का टुकड़ा मात्र रह जाएगा। लोगों को बाध्य करने के लिए सरकार सेना से कहेगी। पर सेना सरकार की इस मामले में मदद करने से मना कर देती है और अपनी जरूरतों को सीधे अपने परिवार से पूरी कर देती है और सुरक्षा उपकरण किसी और राष्ट्र से कुछ वस्तुएं दे कर ले लेती है। तब यह चौड़ी क्या करेगी? किसी विदेशी राष्ट्र से हाथ मिला कर अपने ही राष्ट्र पर आक्रमण करवा दे? मान लेते हैं कि यह भी नहीं हो पाया। तो इस चौकड़ी के पास क्या रह जाएगा? लोग अपने कार्य करते रहेंगे, बस मुद्रा के स्थान पर किसी वास्तु से अदला-बदली करेंगे। ऐसे में ऐतिहासिक पहिंया पीछे में घूम सकता है और चंद शक्तिशाली लोग छोटे राजा और फिर बड़े राजा बन कर अपना आधिपत्य एक बड़े भूभाग पर कर सकते हैं। परन्तु यह भी उसी स्थिति में संभव है जब लोग सेना बनाने के लिए तैयार हो जाएं। परन्तु यदि लोग सेना निर्माण से भी मना कर देते हैं, तब क्या होगा? तब शायद रूपये के लिए काम करने की जरुरत नहीं होगी और अपनी जरूरतों को पूरा करने के बाद लोग विज्ञान और कला की और अधिक अग्रसर होंगे। ऐसे में नए अविष्कारों की संभावना भी अधिक होगी और जीवन अधिक सरल होगा क्योंकि अविष्कारों का उपयोग शोषण नहीं बल्कि सबकी सुविधा के लिए किया जाएगा। मैंने प्रश्न शुरू किया था कि "मुद्रा भाव कैसे बढ़ता या चढ़ता है?" ऊपर लिखी बाते इस प्रश्न का उत्तर सरलता से देती है।
ऊपर की स्थिति को अंत से शुरू कीजिए और मानिए कि लोगों के बीच एक ऐसी चीज़ घुसा दी जाए जिसके लिए उन्हें इतना संघर्ष करना पड़े कि उनका सरलता से जीवन यापन करना भी नामुमकिन हो जाए। परन्तु उस चीज़ के घुसाने तक संपत्ति पर लोगों का ही अधिकार है। परन्तु अब वह अपनी संपत्ति अथवा श्रम का आदान-प्रदान वैसे नहीं कर सकते जैसे कि पहले करते थे। अब उन्हें इसे उस चीज़ के आधार पर अपने सारे लेनदेन करने होंगे। और मान लीजिए कि यह चीज़ चंद लोगों के नियंत्रण में हो, जैसे कि हमारी ऊपर बताई चौकड़ी। तो सीधे-सीधे न केवल लोग, बल्कि उनके द्वारा किए गए आविष्कार भी उस चौकड़ी के पास चले जाते हैं। लोगों को वह चीज़ चाहिए होगी और उसके लिए वह अपनी सम्पति उसे देंगे जिसके पास वह चीज़ है। जैसे आज से सौ साल पहले तक सैंकड़ों एकड़ ज़मीन किसानों ने इसलिए चंद रुपयों में बेच दी क्योंकि सरकार द्वारा निकाले गए रूपये उनके पास नहीं थे। इस प्रकार लोग संपत्ति विहीन हो जाएंगे और फिर उन्हें श्रम देना पड़ेगा। किस प्रकार का श्रम होगा, यह वह चौकड़ी निर्धारित करेगी और उसी प्रकार उसे सिखाने की संस्थाएं खोलेंगी। कुछ श्रमों को दुर्लभ बना कर महँगा कर दिया जाएगा ताकि अधिक लोग वह पर्याप्त न कर सके जिससे कि मानव श्रम उस चीज़ की काम-से-काम मात्रा में उसे मिल जाए जिसके पास वह चीज़ है। और वह चीज़ है मुद्रा (रुपया)।
तो मुद्रा का भाव तब बढ़ेगा जब लोगों के पास कम-से-कम संपत्ति होगी। इसलिए भारत में कम रूपये में भी श्रमिक मिलते हैं क्योंकि उनके पास कम-से-कम संपत्ति है। परन्तु यदि भारत की तुलना विकसित देशों से की जाए तो उसकी मुद्रा का मूल्य घट जाता है। क्योंकि उसके पास उन देशों की तुलना में कम संपत्ति है। भारत में कम संपत्ति है तो अमरीकी डॉलर का भाव ज्यादा है। अर्थात विकसित देशों के पास अधिक सम्पति है अथवा वे निरंतर आपकी संपत्ति को लेकर आपसे अधिक संपत्तिवान बन रहे हैं, जैसे भारत के भीतर हमारी बताई चौकड़ी अधिक संपत्तिवान बन रही है। विकसित देशों की संपत्ति है "सूचना और आविष्कार।" विकसित देश सूचना को संचित करके उसके आधार पर नए-नए आविष्कार करते हैं। उन अविष्कारों से वह नई वस्तुएं बनाते हैं अथवा काम करनेवाले पुराने तरीकों को बदल देते हैं और उन्हें अधिक सरल बनाते है। इससे वहाँ की अधिकांश जनता के पास अतिरिक्त समय होता है और वह आधुनिक एवं रचनात्मक कार्यों में लगती है। इसलिए श्रम पर आधारित कार्य वें भारत जैसे देशों को देते हैं, जैसे वस्त्र निर्माण आदि। और हमें अपनी दुर्लभ वस्तुएं जैसे मशीनें दे कर हमारी उस कमाई को भी ले लेते हैं।
तो भारत में रूपये की कीमत अधिक है (अर्थात इसका महत्व अधिक है) क्योंकि यहाँ के लोगों के पास सम्पत्ति नहीं है। जब ज़मीन संपत्ति थी तब यह चंद हाथों में थी। अब आधुनिक उपकरणों की संपत्ति है तो वह किसी और की है और उसकी कीमत बहुत ऊँची है। लोगों के पास वह ताकत नहीं है जिससे कि वह अविष्कारों को साकार रूप देकर उन्हें सर्वसुलभ कर (सबको सुलभ करवा) सकें। लोगों के पास वह ताकत नहीं है कि वह उत्तम शिक्षा सर्वसुलभ कर सकें। अर्थात सूचना और अविष्कारों पर चौकड़ी (सरकार, उत्पादक, विक्रेता और बैंकों) का अधिपत्य है। ऐसे ही विकसित देशों का उनकी सूचाना और अविष्कारों पर अधिपत्य है और वह उन्हें भारत जैसे देशों को उपलब्ध नहीं करते। "सो भारत को यदि अपने रूपये की कीमत विकसित देशों की मुद्रा के मुकाबले ऊपर उठानी है तो उसे भारत के भीतर रूपये की कीमत गिरानी पड़ेगी।" अर्थात लोगों की रूपये पर निर्भरता समाप्त करनी होगी। उन्हें जीवनयापन करने के साधन सुलभ करवा कर सूचना को सही प्रकार बांटना पड़ेगा। तभी अधिकांश्तर लोग कला एवं विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ेंगे और हम नए अविष्कारों को कर पाएंगे। फिर उन अविष्कारों से शोषण करने की जगह उन्हें सबका जीवन सरल बनाने के लिए प्रयास में लाने लायक बनाना पड़ेगा। इस प्रकार एक नए मानव का विकास करना पड़ेगा जो जापान जैसे डिजिटल उपकरणों अथवा जर्मनी जैसी मशीनरी का निर्माता हो। इस प्रकार ही भारत अपनी वह शोभा प्राप्त कर पाएगा जिसके बारे में डॉ आंबेडकर ने अपनी थीसिस में लिखा था।
इस लेख को लिखने में मैं दो विद्वानों के कारण सक्षम हो पाया और मैं उन दोनों का धन्यवाद करता हूँ। एक डॉ भीमराव आंबेडकर, जिनकी थीसिस पढ़ कर मेरी अर्थशास्त्र की समझ बनानी शुरू हुई और दूसरे अमरीकी अर्थशास्त्री रॉबर्ट कियोसकी, जिनकी पुस्तकें पढ़ कर, और उनके ऑडियो प्रोग्राम सुन कर मेरी अर्थशास्त्र की समझ बढ़ी। - निखिल सबलानिया
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काँग्रेस और गाँधी ने अछूतों के लिए क्या किया? - डॉ. भीमराव आंबेडकर जी

डॉ. भीमराव आंबेडकर जी की लिखित "काँग्रेस और गाँधी ने अछूतों के लिए क्या किया?," न केवल भारत के राजनैतिक इतिहास का ही बल्कि काँग्रेस की कारगुजारियों का भी इतिहास है। आज तक अनुसूचित जाति के लोग (जिन्हें अछूत कहा जाता था, जैसे कि महार, चमार, बाल्मीकि, बैरवा, मेघवाल, खटीक, मुसहर, पासी, मडगा, कोरी, कोली, बलाई, धोबी, दुसाध, डोम, रैगर, शिल्पकार आदि) भर-भर कर काँग्रेस को वोट देते आए हैं, पर यदि उन्होंने यह पुस्तक पढ़ी होती तो उन्हें पता चलता कि काँग्रेस ने उनके साथ क्या किया। आज के ओ.बी.सी (जिन्हे शूद्र मना जाता था, जैसे की तेली, लोहार, बढ़ई, यादव, जाट, कायस्थ और सुनार (जो शूद्र माने जाते थे पर ओबीसी में नहीं आते) आदि के संसद में प्रतिनिधित्व के बारे में हिन्दू (ब्राह्मण, वैश्य और क्षत्रिय) नेताओं के क्या विचार थे ? इस पुस्तक में यह भी बताया गया है कि काँग्रेस किस प्रकार से एक जाति विशेष की ही पार्टी है और जब वह दूसरी जातियों जैसे कि क्षत्रिय या वैश्य में से किसी को प्रतिनिधि बनाते हैं तो किस प्रकार भेदभाव करते हैं। यह बीते समय की नहीं बल्कि आनेवाले समय की पुस्तक है। इस पुस्तक को डॉ. आंबेडकर जी ने अपने दीर्घ कालीन कार्यों के बाद लिखा, सो यह भारत के राजनैतिक इतिहास का एक जबरदस्त विश्लेषण है। इस पुस्तक को प्रत्येक भारतीय को और जो भारत की राजनीति में दिलचस्पी रखते हैं, उन्हें अवश्य पढ़ना चाहिए। हिन्दुओं ने अछूतों के उद्धार के लिए हाथ पीछे क्यों खींच लिए ? क्या गाँधी वर्णवाद में विश्वास रखते थे ? गाँधी किस प्रकार अंग्रेजों को बेवकूफ बनाते थे ? क्या गाँधी जानते थे कि स्वतंत्र भारत की सत्ता बड़े उद्योगपतियों के हाथों में चली जाएगी ? क्या गाँधी सच में महात्मा कहलाने लायक थे ? क्या गाँधी को अछूतों की सच में परवाह थी ? कई बार अनशन करनेवाले गाँधी ने क्या कभी अछूतों के उद्धार के लिए अनशन किया ? अछूतों को मिले अधिकारों को समाप्त करने में गाँधी की भूमिका क्या थी ? भारत की स्वतंत्रता का आंदोलन सच में किस जाति विशेष की सवतंत्रता का आंदोलन था ? आखिर क्यों एक जाति विशेष अंग्रेजों के सबसे अधिक शत्रु बन गए ? क्या गाँधी सच में एक साधु के रूप में भौतिकवादी नहीं थे ? स्वतंत्रता आंदोलन के नाम पर दान स्वरूप एकत्र की गई कितनी राशि को गाँधी ने अपने लिए रखा और कितनी राशि किन-किन राज्यों पर खर्च की? गाँधी क्या सच में देश के नेता थे या मात्र एक पार्टी के नेता ? इतिहास के ऐसे ज्वलंत प्रश्नों और मोहनदास कर्मचंद गाँधी के नजरिये को डॉ. आंबेडकर जी की दृष्टि से बताती एक महत्वपूर्ण पुस्तक। यदि आप इसे पढ़ना चाहते हैं तो आज ही ऑर्डर करें। इसे फोन पर ऑर्डर करके या या वेबसाइट पर ऑर्डर करके प्राप्त कर सकते हैं। पेमेंट पेटीएम से अथवा बैंक में अथवा वेबसाइट पर अथवा भीम एप से दें। संपर्क : 8851188170, 8447913116. BHIM App : nspmart@upi
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डॉ. आंबेडकर जी की एक ऐसी पुस्तक जो हिंदी में पहली बार प्रकाशित हुई है

क्या आपने अभी तक डॉ आंबेडकर जी की लिखित पुस्तक 'अछूत और ईसाई धर्म' पढ़ी है? यह पुस्तक डॉ आंबेडकर जी के एक महत्वपूर्ण लेख का हिंदी में अनुवाद है। यह पुस्तक डॉ आंबेडकर जी का ईसाई धर्म और भारत के ईसाईयों और विषेशकर अछूतों में से ईसाईयों के बारे में नजरिया पेश करती है। यह मिस्टर गाँधी के ईसाईयों के बारे में उनकी सोच को भी बताती है। यह डॉ आंबेडकर जी के धर्म से संबंधित विचार भी बताती है। यह पुस्तक इतिहास का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो कि हिंदी भाषी लोगों से अब तक अछूता है। यह पहली बार हिंदी में अनुवाद किया गया है। इसे एकदम सरल भाषा में अनुवादित किया गया है जिससे यह आम पाठक की समझ में आ जाए। यह भारत सरकार द्वारा प्रकाशित हिंदी के संस्करण में भी नहीं है। केवल निखिल सबलानिया पब्लिकेशन्स पर उपलब्ध है। यदि आपने अभी तक नहीं पढ़ा है तो आज ही खरीदें। बहुत से लोग जो भारत में ईसाई मिशनरी को कोसते हैं, डॉ आंबेडकर जी की यह पुस्तक उनको करारा जवाब है। डाक सहित मूल्य 170. आप इसे वेबसाइट पर भी खरीद सकते हैं। भारत में कहीं भी प्राप्त करें। पेमेंट पेटीएम से अथवा बैंक में अथवा वेबसाइट अथवा BHIM App पर दें। संपर्क : 8851188170, 8447913116. Bhim app: nspmart@upi Paytm number 8527533051. ऑर्डर करने के लिए यहां क्लिक करें https://www.nspmart.com/product/अछूत-और-ईसाई-धर्म

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