Saturday, January 16, 2016

ब्राह्मणों के त्योहारों का सच

ब्राह्मणों के त्योहारों का सच 
1)महाराष्ट्र में गुडीपाडवा त्यौहार का सच!
गुडीपाडवा ये त्यौहार महाराष्ट्र में खासकर मनाया जाता है। लेकिन बहोत सारे मूलनिवासी, obc sc st मराठा समाज ने अब तक इसके पीछे का इतिहास जानने की कभी कोशिशनहीं कि। हालाकि बामसेफ / संभाजी ब्रिगेड ने सच्चा इतिहास बताने का काम शुरू किया है। लेकीन अभी भी बहोत सारे लोगों को इसका ज्ञान नहीं है।
गुडीपाडवा के दिन शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी महाराज को ब्राह्मणों ने औरंगजेब को धोका देके पकडवा़ के दिया था"
और उनको मनुस्मृति के अनुसार सजा दी गयी थि। ब्राह्मणों ने उनका सर काटके भाले पे लटका दीया और उसका जुलूस निकाला. क्यों की उन्होंने बुद्ध भूषण नाम का ग्रन्थ बहोत कम उम्र में लिखा था और ब्राह्मणों की दादागिरी को ललकारा था। बहोत सारे ब्राह्मण चोरो को भी उन्होंने पकडवाके संभाजी महाराज ने सजा भी दि। इसका बदला लेने के लिए ब्रह्मनोने संभाजी महाराज की बदनामी की 
और उनको धोके से मार डाला, वो आज ही के दिन, 
गुडीपाडवा !
कह जाता है के ये त्यौहार श्री राम अयोध्या वापिस आने पर उनके स्वागत के लिए मनाया जाता है, लेकिन जहा श्री राम वापस आये थे उस अयोध्या नगरी में तो कोई गुडीपाडवा ये उत्सव नहीं मनाया जाता? 
तो फिर महाराष्ट्र में ही क्यों? 
क्या मराठा समाज को ये विचार कभी आया है?
जब मराठा लोग एक दूसरों को गुडीपाडवा दिन की बधाई देते है तो हमें बड़ा दुःख होता है 
और उनके अज्ञान पर बड़ा तरस आता है।
औरंगजेब ने संभाजी महाराज कि तऱ्ह आज तक किसी कि भी हत्या नाही कि थी !
महाराज को सरल तरीके से मारणे के बजाय अलग-अलग दंड क्यो दिया? 
सबसे पहले महाराज कि जीवा काटी गयी ! इससे अनुमान लागाया जाता है कि संभाजी महाराज ने संस्कृत भाषा पर प्रभुत्व हासिल किया था ! 
उन्होने चार ग्रंथो कि रचना कि थी, इसलिये सबसे पहले उनकी जीवा काटने कि ब्राह्मनोने सलाह दि ! 
उसके बाद महाराज के कान,नाक आंखे और चमडी निकाली गयी ! 
यह घीनौना दंड "मनुस्मृती" संहिता के अनुसार दिया गया !
मतलब औरंगजेब के माध्यम से ब्राह्मनोने संभाजी महाराज को यह दंड दिया !
कवी कुलेश को भी औरंगजेब ने जिंदा नाही छोडा ! क्योंकी अपनी जान से भी ज्यादा चाहनेवाले संभाजी महाराज जैसे स्वाभिमानी ,निर्मल और चाहिते दोस्त के साथ यदि कुलेश गद्दारी कर सकता है,तो वह हमारे साथ भी गद्दारी कर सकता है,इस बात को सोचते हुये औरंगजेब ने कुलेश कि भी जान ले ली ! औरंगजेब ने अपने सगे भाई तथा चाहिते सरदार दिलेरखान ,मिर्झाराजे ,जयसिंग इन वफादार सर्दारो को भी मार डाला! इसलिये मदत करनेवाले कवी कुलेश को जिंदा रखना औरंगजेब को संभाव नहि था ! क्योंकी औरंगजेब ने कवी कुलेश को उसके काम कि पुरी किमत अदा कि थी !
औरंगजेब ने संभाजी महाराज को राजनीतिक संघर्ष कि वजह से मारा !
औरंगजेब ने संभाजी महाराज को केवळ दो सवाल पूछे ! पहला सवाल ,'आपके खजाने कि चाबिया कहा है?
' और दुसरा सवाल था ,'हमारे सर्दारोमे आपकी मुख् बिरी करणेवाला सरदार कौन है?' 
इसका मतलब औरंगजेब ने संभाजी महाराज को धर्मांतरण करणे का आग्रह नाही किया और ना हि संभाजी महाराज ने इसके बदले मे औरंगजेब के सामने उसकी लडकी कि मांग रखी ! 
संभाजी महाराज कि हत्या के पाश्च्यात ब्राह्मनोने जल्लोष के तौर पर " गुडीपाडवा ' शुरू कीया.
यही सचाइ है....
२)हनुमान का सच 
 देश में उसकी जयंती मनाई जा रही है जिसके बारे में कहा जाता है वो हवा में उड़ सकता था सूर्य को निगल सकता था।मतलब पृथ्वी के ऑर्बिट से बाहर जा सकता था और आ सकता था।विज्ञान कहता है किसी वस्तु को 11.2 km/s मतलब 40320 किलोमीटर प्रति घण्टा के रफ़्तार से फेंकने पर ही वह वस्तु अंतरिक्ष में चली जायेगी। -185 ℃ के लिक्विड ऑक्सीजन को क्रोयोजेनिक इंजन में विस्फोट कर अंतरिक्ष यान को इससे भी ज्यादा गति से धक्का दिया जाता है।तब कोई यान अंतरिक्ष में जा पाता है।
वैज्ञानिक यह भी सिध्द कर चुके है भूमध्य रेखा किसी अंतरिक्ष यान को प्रक्षेपित करने के लिए आदर्श स्थान है क्योकि भूमध्य रेखा में पृथ्वी की गति 1670 किलोमीटर/घण्टा होने से अंतरिक्ष यान को 500 किलोमीटर/घण्टा की अतिरिक्त गति प्राप्त होती है भूमध्य रेखा के नजदीक होने के कारण ही भारत में थुम्बा को अंतरिक्ष यान प्रक्षेपण के लिए चुना गया है।भारत की सीमा भूमध्य रेखा से 8°4 N में आरम्भ होती है।पर ऐसा कोई भी प्राचीन प्रक्षेपण केंद्र के अवशेस भारत और विश्व में कही प्राप्त नही हुआ है ना धर्म गर्न्थो में किसी टेक्नालाजी का वर्णन है जिससे वो उड़ते थे,उनका प्रक्षेपण केंद्र किस स्थान पर था इसका कही उल्लेख नही है।।
ये तो हो गया लांचिंग स्टेशन और स्पीड का गणित अब नजर डालते है टेम्प्रेचर और आकार पर।
15 मिलियन ℃ डिग्री केंद्र के ताप, 5500 ℃ अँधेरे हिस्से के ताप और 4320℃ बाहरी ताप वाले एवं पृथ्वी की त्रिज्या (40000 किलोमीटर) से 17.5 गुना बड़े (700000 किलोमीटर) सूर्य को निगले थे ऐसा कहा जाता है।पृथ्वी में कुल सूर्य ऊर्जा का मात्र 0.000000724654% पहुंचने पर अप्रैल महीने में ये हाल है।48℃ में चिड़िया मरने लगती है,50℃ रिस्ट वाच काम करना बन्द कर देती है,हम डी हाइड्रेशन के शिकार होने लगते है।विज्ञान अभी तक 1000℃ तक क्षमता वाले फायर प्रूफ जैकेट का निर्माण कर पायाहै। उधर पृथ्वी से 6000 किलोमीटर दूर में तापमान 258°F से 158°F में झूलते रहने, हवा को कोई दबाव नही होने , आक्सीजन की अनुपलब्धता, ध्वनि के आवागमन का साधन नही होने के कारण जीवन असम्भव हो जाता है।
उधर बिना आक्सीजन के 15 करोड़ किलोमीटर दूर पहुंचकर सूर्य को निगलते थे? पता नही कौन सा फायर प्रूफ जैकेट पहन कर उड़ते थे? पता नही 4320℃ तापमान को कैसे बर्दाश्त करते रहे होंगे? उनके पास कौन सा तापमान प्रूफ पोशाक रहा होगा ? 700000 किलोमीटर त्रिज्या वाले सूर्य को निगलने के किये अपने मुंह कितना बड़ा करते रहे होंगे? और उतने बड़े सिर को सम्भालने अपने पैरो को कहाँ स्थिर करते होंगे?
खैर आप लोग ज्यादा सोचो मत दिमाग का दही बन जाएगा .
3)गणपति का सच 
🌹🔥~गणपती का रहस्य~🔥🌹
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~~बुद्ध का मतलब ही अष्टविनायक है~~
पोस्ट जरा बड़ी है लेकिन आँखे खोलकर पढ़े...
🌹~लोकशाही व्यवस्था में देश का प्रमुख "राष्ट्रपति" होता है, उसी प्रकार प्राचीन भारत में गण व्यवस्था होती थी और उस गण व्यवस्था का प्रमुख "गणपति" होता था.
~~~"गणपति बाप्पा मोरया" अर्थात ~~~
मौर्य राजाओ में गणपती ~"चन्द्रगुप्त मोरया"~~~
🌹~:मूलनिवासी मौर्य राजाओ की सूचि :~ 🌹
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मूलनिवासी मौर्य राजाओं का कार्यकाल ई.पू.
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👇👇 👇👇
🌹1~चन्द्रगुप्त मौर्य 323~299 ई.पू.
🌹2~बिन्दुसार 299~274 ई.पू.
🌹3~सम्राट अशोक 274~138 ई.पू.
🌹4~कृंणाल मौर्य। 238~231 ई.पू.
🌹5~दशरथ मौर्य 231~223 ई.पू.
🌹6~सम्प्रति मौर्य 223~215 ई.पू.
🌹7~शाली शुक्त 215~203 ई.पू.
🌹8~देव वर्मा मौर्य 203~196 ई.पू.
🌹9~सत्यधनु मौर्य 196~190 ई.पू.
🌹10~बृहद्रथ मौर्य 190~184 ई.पू.
🌹~और इस मौर्य शासन से पहले प्राचीन भारत में एक राजघराणे में "सिद्धार्थ गौतम" नामक राजकुमार का जन्म हुआ। वही आगे चल कर "शाक्य गण "का प्रमुख हुआ. कालांतर में सिद्धार्थ ने बुद्द्धत्व प्राप्त किया ....।
🌹~अब सच्चे गणपति और काल्पनिक गणपति के बिच में का फरक समझ लेते है... 👇👇
🌹~कूछ चालाक ब्राहमणों ने सच्चे गणपति को काल्पनिक गणपति बनाया। शाक्य गण का प्रमुख इस नाते से लोग "बुद्ध "को गण का पति अर्थात गणपति कहने लगे थे। उसी प्रकार-
🌹~जब बुद्ध लोगों को धर्म का सन्देश देते थे तब उनके संदेशों में दो शब्दों का मुलभुत रूप से उल्लेख होता था, वे शब्द है,
1~" चित्त " और 2 ~" मल्ल "
🌹~चित्त याने शरीर (मन) और मल्ल याने मल (अशुद्धी). तुम्हारे शरीर व मन से मल निकाल देने पर तुम शुद्ध हो जाओगे और दुःख से मुक्त हो जाओगे, ऐसा बुद्ध कहते थे. इसी संकल्पना को विकृत कर ब्राह्मणों ने काल्पनिक पार्वती के शरीर से मल निकालकर एक बालक (अर्थात गणपति) के जन्म की कहानी को प्रसुत किया।
🌹~ गौतम बुद्ध नागवंशी थे। पाली भाषा में "नाग "का अर्थ "हाथी "होता है. अर्थात बुद्ध यह हाथी वंश के थे .... इसलिए इस नए जन्मे बालक (सिद्धार्थ) को हाथी के स्वरुप में बताया गया है।
🌹~ अर्थात, हाथी यह बुद्ध के जन्म का प्रतिक है और हाथी बौद्ध धर्म का भी प्रतिक है। इस सत्य को छुपाने के लिए, ब्राहमणों ने काल्पनिक पार्वती के काल्पनिक पुत्र को हाथी की गर्दन लगाई, किसी अन्य प्राणी जैसे शेर, बैल, घोडा, चूहा की गर्दन नहीं लगाईं......!!!
🌹~ " अष्टविनायक का सत्य "👇
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🌹~ जगत में दुःख है, यह बात दुनिया में सबसे पहले बताने वाला बुद्ध ही था और दुःख को दूर कर सुखी होने के लिए अष्टांगिक मार्ग भी बुद्ध ने ही बताया. "अष्टांगिक" मार्ग का अवलम्ब करने से दुःख नष्ट होता है यह बुद्ध ने सिद्ध कर दिखाया। यह आठ नियम या सिद्धांत विनय से सम्बंधित है. इसलिए, बुद्ध को 'विनायक' कहा गया और " आठ मार्गो " पर विनयशील होने से "अष्टविनायक "भी बुद्ध को ही कहा गया. 
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🌹~ अर्थात, अष्टांगिक मार्ग से अष्टविनायक होकर दुःख को नष्ट कर सुख की प्राप्ति करवाने वाला बुद्ध था. इसलिए, बुद्ध को लोग 'सुखकर्ता और दुखहर्ता' कहने लगे.
🌹~ इस सत्य को दबाने के लिए ब्राहमणों ने काल्पनिक गणपति को अष्टविनायक भी कहा और सुखकर्ता दुखहर्ता भी कहा।
इसका मतलब यह है की, गणपति दूसरा तीसरा कोई नहीं है, बल्कि, तथागत बुद्ध ही गणपती है। ब्राहमणों ने बुद्ध अस्तित्व को नष्ट करने के लिए काल्पनिक गणपति का निर्माण किया। यह करते समय उन्होंने कई गलतियां की, जिससे ब्राहमणों की बदमाशी उजागर होती है। वे गलतियां इस प्रकार है-
(१) 🌹~ शिव शंकर जब देवों का देव है, तो उसे गणपति का सर धड से अलग करते समय यह पता क्यों नहीं चला कि वह उसका ही पुत्र है?
(२) 🌹~ जब गणपति देव था, तो उसे यह कैसे पता नहीं चला की, जिसे वह रोक रहा है वह उसका ही बाप है?
(३) 🌹~ शंकर को यह कैसे पता नहीं चला की उसकी बीवी गर्भवती है?
(४) 🌹~ अगर पार्वती शरीर के मैल से बालक बना सकती है, तो वह उसी मैल से बालक का सर क्यों नहीं बना पाई?
(५) 🌹~ खैर ये कहे की पार्वती नहा कर आई थी। लेकिन, जीवन मृत्यु का शाप वरदान देने वाले शंकर की शक्ति कहाँ गई थी ? शंकर ने एक निष्पाप हाथी की जान क्यों ली ?
(६) 🌹~ और ये सोचे की क्या किसी छोटे से (बालक) की गर्दन में हाथी का सिर फिट कैसे बैठ गया ?
(७) 🌹~ आगे कृतयुग में गणपति का वाहन सिंह था और उसे १० हाथ थे।
👉त्रेतायुग में उसका वाहन मोर और छे हात थे।
👉~ द्वापारयुग में उसका वाहन मूषक अर्थात चूहा और चार हात थे..
अगर अलग अलग युग में वह हाथ और शरीर कम ज्यादा कर सकता था तो उसने खुद के सर का निर्माण क्यों नहीं किया ?
(७) 🌹~ प्राणी हत्या से जन्मे गणपति को सुखकर्ता, दुखहर्ता कैसे कहा जा सकता है ?
(८) 🌹~ "शिव पुराण "के अनुसार पार्वती ने बनाए मल के गोले पर गंगा का पानी गिरा और गणपति का जन्म हुआ .......
~ ब्रम्हवैवर्त पुराण ने तो कहर ही कर दिया !!!👇
🌹~पार्वती वह गोला ब्रह्मदेव के पास ले जाती है और उसे जिन्दा करने के लिए विनती करती है, तब उसपर ब्रम्हदेव अपने विर्य का छिडकाव करता है और उसे गोले का गणपति बनता है....
🌹~ अब प्रश्न यह है कि, गणपती शंकर का पुत्र था या ब्रम्हदेव का...?
(९) 🌹~ गणपती विवाहित है, ऋद्धी और सिद्धी यह ब्रम्हदेव की दोनों लड़कियां उसकी दो पत्नियाँ है। अर्थात, ब्रम्हदेव के विर्य से जन्म लेने पर गणपती ने अपनी ही बहनों के साथ शादी क्यों किया ..?
(१०)🌹~ "सौगन्धि का परिणय" इस संगीत सूत्र के तीसरे अध्याय में गणपति का उल्लेख काम वासना के असुरों में से छठवां असुर ऐसा उल्लेख है ...
🌹~ आगे चन्द्रगुप्त मोर्य यह मोर्य वन्श का गणपति हुआ इसलिए ब्राहमणों ने "गणपति बाप्पा मोरया" ऐसी घोषणाएँ दि ...... मोर्या शब्द के बारे में ब्राहमणों के इतिहास में कोई उत्तर नहीं ....... कर्नाटक में चन्द्रगुप्त मोर्य ने जैन धर्म का प्रचार किया था। इसलिए उस क्षेत्र में कई लोग खुद के नाम के आगे मोरया नाम लगाते थे। .... महाराष्ट्र में मोरे सरनेम भी मोर्य वंश का ही अपभ्रंश है ...... संत तुकाराम यह मोरे थे....इस सत्य को छुपाने के लिए ब्राह्मणों ने यह अफवा फैलाई की १४ वी सदी में एक मोरया नामक गोसवि हुआ और उसके नाम पर से मोरया शब्द गणपती से जुड़ गया! ब्राह्मण लोग भी झूठ की हद कर देते हैं!!
🌹~ तुकाराम महाराज और शिवाजी महाराज और संभाजी महाराज की हत्या करने के बाद ब्राह्मणों ने शिवशाही को पेशवाई में बदल डाला ... और....बौद्ध लेणी (गुफाओं) और विहारो की जगहे काबिज क़र वहां पर काल्पनिक देवी देवता बिठाना शुरू किया ....... कार्ला की बुद्ध लेणी में बुद्ध माता महामाया को ब्राह्मणी एकविरा देवी का स्वरुप दिया, जुन्नर के लेन्याद्रि बुद्ध लेणी में गणपति बिठाकर उसे काल्पनिक अष्टविनायक गणपती का प्रमुख स्थल बता दिया, शेलारवाडी, पुणे की लेणी में शिवलिंग बिठाकर कब्जा किया ..........
कारण...
🌹~ सच्चा इतिहास यह है कि, संपूर्ण प्राचीन भारत बौद्धमय था. अशोक सम्राट ने बुद्ध के बाद सारे भारत को बौद्धमय बनाया था. लेकिन ब्राम्हण समाज ने अशोक के वंश को ख़तम कर बौद्ध धर्म में विचार और इतिहास की मिलावट की और 33 करोड़ देवताओं को जन्म दिया.
🌹~इस भारत देश में वास्तव में शाक्य गण के गणपति हो गए, उसी गणपति शब्द का ब्राह्मणों ने ब्राम्हनिकरण करके समाज में झूठे गणपती को जन्म दिया.
🌹~और इस झूठे काल्पनिक गणपती के नामपर सम्पूर्ण समाज को अन्ध्श्रद्दा में डूबो दिया. और त्यौहार उत्सव के नामपर ब्राहमणों ने समाज से धन दौलत लूटना सुरु कर दिया.
🌹~शिवाजी महाराज महाराष्ट्र के कूर्मि अर्थात मराठा (शुद्र) मूलनिवासी राजा थे । शिवाजी महाराज की हत्या ब्राह्मणों ने ज़हर दे कर कर दी, जिसका बदला संभाजी महाराज ने उन ब्राह्मणों को हाथी के पैर के निचे कूचलवा कर मार कर लिया था। इससे आहत होकर ब्राह्मणों ने धोके से संभाजी महाराज को औरंगज़ेब के हाथों में पकड़वा दिया और बाद में मनुस्मृति के मुताबिक जीभ-सर कटवा कर उन्हें मार डाला।उस दिन ब्राह्मणों ने उनके पेशवा राज्य में उत्सव स्वरूप शक्कर बाटकर उस दिन को गुढीपाडवा नाम दिया । इस तरह ब्राह्मणों ने शिवाजी और संभाजी महाराज दोनों का क़त्ल किया ।
🌹~शिवाजी महाराज के मृत्यु के बाद महात्मा ज्योतिराव फूले ने रायगढ़ में उनकी समाधी ढूंढ़ निकाली थी और जून 1869 में शिवाजी महाराज के मान में " पेवाडा "लिखा। महात्मा ज्योतिराव फूले ने 1874 में महाराष्ट्र के बहुजनो के लिए पहली बार शिवाजी जयंती (शिव जयंती) मनाई। बहुबहुजनो को जागृत करने के लिए फुलेजी ने शिवजयंती उत्सव हर साल दस दिन तक मनाना चालू किया।
🌹 महाराष्ट्र में महात्मा ज्योतिराव फूले द्वारा बहुजन शद्रो~अतिशूद्रों (sc~st~obc) में "शिव जयंती "के प्रभाव और जाग्रति के कारण ब्राह्मण डरने लगे। इसलिए, रत्नागिरी (महाराष्ट्र) के बाल गंगाधर तिलक नामक कट्टर ब्राह्मण ने "शिव जयंती" से बहुजनो में बढ़ते जाग्रति और प्रभाव को ख़त्म करने के लिए सन् 1893-94 में गणपति महोत्सव का सार्वजानिक आयोजन किया ।
👉क्या 1893~94 से पहले महाराष्ट्र में गणोंत्सव मनाया जाता था.....??? बिलकुल नहीं!!!
~~ इसका कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है .....!!!!
👉ब्राह्मणों के मुताबिक भगवान् शंकर का ठिकाना हिमालय मे उत्तर भारत के आसपास है, तो उन्होंने गणेश (शंकर पुत्र) को महाराष्ट्र में ज्यादा प्रचलित क्यों कारवाया....उत्तर भारत में क्यों नहीं .......?
🌹~इसका मुख्य कारण यह है कि, शिवाजी महाराज और संभाजी महाराज की हत्या ब्राह्मणों ने की थी। इस बात का ब्राह्मणों को डर था की, अगर इस तथ्य का पता बहुजनो चलेंगा तो ब्राह्मणों का अंत निश्चित् है ।इसलिए, ब्राह्मणों ने महाराष्ट्र में महात्मा ज्योतिबा फूले के शिव जयंती उत्सव से जागृत हो रहेे बहुजन शुद्रो को शिवाजी व संभाजी महाराज की हत्या ब्राह्मणों द्वारा हुई है, यह पता ना चले, इसके लिए, उनका ध्यान डाइवर्ट करने के हेतु उन्होंने "शिवजयंती" महोत्सव के विरोध में गणपति महोत्सव को महाराष्ट्रा में सार्वजनिक किया ।
४)क्या है छठ की पूजा ? 💀
👉छठ पूजा की सच्चाई जाने बिना अज्ञानी, अंध विश्वासी बिहारी लोग इसे धूम धूमधाम से मनाते हैं. 
👉तथा धीरे-धीरे वोट के लिये राजनीतिज्ञों द्वारा पूरे देश में ये फैलाया जा रहा है. 
👉ब्राह्मण किस तरह से भोले भाले अंजान लोगों को बेवकूफ बना सकता है, ये एक वर्तमान उदाहरण है. 
👉असल में तथाकथित छठ माता, महाभारत के एक चरित्र कुंती की प्रतीक है जो कुंवारी होते हुये भी सूरज नाम के व्यक्ति से शादी के पहले के सम्बन्ध से प्रेग्नेंट(पेट से) हो जाती है। 
👉 सच ये है की, खुद प्रेग्नेंट है इस बात की कुंती को समझने में देरी हो जाने से, कर्ण नाम का पुत्र पैदा करती है। 
👉 महाभारत की इस घटना ( सूर्य से वरदान वाली जूठी कहानी) को इस दिन मंचित किया जाता है. जो परम्परा का रुप ले लिया है. 
👉शुरू में केवल वो औरतें जिनको बच्चा नहीं होता था, वही छठ मनाती थी तथा कुंवारी लड़कियां नहीं मना सकती थीं क्योंकि इसमे औरत को बिना पेटिकोट ब्लाउज के ऐसी पतली साड़ी पहननी पड़ती है जो पानी में भीगने पर शरीर से चिपक जाय तथा पूरा शरीर सूरज को दिखायी दे जिससे कि वो आसानी से बच्चा पैदा करने का उपक्रम कर सके. 
👉सूरज को औरतों द्वारा अर्घ देना उसको अपने पास बुलाने की प्रक्रिया है जिससे उस औरत को बच्चा हो सके. 
👉ये अंधविश्वास और अनीति की पराकाष्ठा है कि आज इसको त्योहार का रुप दे दिया गया है तथा आज कल अज्ञानी एवं अंध विश्वासी आदमी तथा कुंवारी लड़कियां भी इस भीड़ में शामिल हो गये हैं. 
👉ज्ञात हो कि ये बीमारी बिहार से सटे यू पी के जिलों में भी बड़ी तेजी से फैल रही है।
👉आशा है कि इस पोस्ट को पढ़ने के बाद देश कि औरते इस बीमारी का शिकार होने से बचेगी।
5)★महाशिवरात्रि का रहस्य★
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▼-क्या कारण हे कि ब्राह्मणी ग्रन्थों में और चित्रकारों की चित्रकारी में भगवान् शिव का रंग काला, उसके रहने का ठिकाना श्मशान घाट और गहनों के रूप में गले में सांप लटकते दिखाए जाते रहे हे, जबकि ब्रह्मा व् विष्णु के रंग गोरे निवास के लिए भव्य भवन और हीरे मोती से जडित स्वर्ण आभूषण, ऐसा क्यों ?
▼-क्या कारण है की शिव की पूजा लिंग के रूप में की जाती है ?
▼-क्या कारण है की 'शिव' को "वैश्यानाथ","केदारनाथ(कीचड़ के देवता)","भूतनाथ",भोलेनाथ" आदि-आदि अपमानित नामों की संज्ञा दी गयी है ? 
▼-क्या कारण है की पुराण-कथाओं में असुरों और राक्षसों द्वारा केवल शिव की पूजा का ही वर्णन मिलता हैं,अन्य देवी-देवताओं का नहीं ?
▼-क्या कारण है की शिव से चले 'शैव' और वैष्णव से चले 'वैष्णव-सम्प्रदाय' में बहुत अंतर है ? 
▼-क्या कारण है की 'शैवपंथ' का अनुसरण करने वाले जोगी/योगी (योगीराज), जो योगाभ्यास में विश्वास रखते हैं, जबकि वैष्णव-पंथी कर्म-कांडों और मूर्ति-पूजा में ? 
▼-हम पढ़ते आये है की "सत्यम-शिवम्-सुन्दरम्" अर्थात सत्य ही शिव है और शिव ही सत्य है |
साथ ही 'शिव' को संहारक देव क्यों माना गया है ?
▼-पुराण-कथाओं में प्रायः देवताओं के किसी संकट के निवारण हेतु अन्य देवगण (विष्णुओं) स्वयं शिव के पास जाते हैं; जबकि शिव कभी 'विष्णु' और 'ब्रह्मा' के पास नहीं जाते है, क्यों ?
▼- आदिवासी और हिन्दू धर्म में पिछड़ेवर्ग के लोग अधिकांशतः 'शिवोपासना' ही क्यों करते है ?
इन प्रश्नों से ऐसा लगता है की :-
★★ कही 'शिव' 'अनार्य' वर्ग के महापुरुष/शासक तो नही ?
★काफी समय पहिले हमारे (मूलनिवासियों) के गौरवशाली इतिहास पर 'एक शोध ग्रन्थ 'भाई सतनामजी' द्वारा लिखित में यह दर्शाया गया हे कि शिव का नंदी और कोई नही, बल्कि यह वही चमर पशु (याक) हे जो हिमालय के उपरी हिस्से में पाया जाता हे जो खेती के लिए, बोझा ढोने, पहाड़ों पर यात्रा और इनके बालों के लिए उपयोग में लिया जाता हे, इतना ही नही इसके पूंछ के बाल ही चंवर ढूलाने के काम में लिया जाता हे | इसी को ब्राह्मणी साहित्य कारों ने कारिस्तानी पूर्वक नंदी के रूप में प्रचारित कर दिया वरना चमर पशु का सीधा संबध चमारद्वीप की संस्कृति से हे और हिमालय के उपरी हिस्से पर आज भी पाया जानेवाला यह पशु वाहन के दलितों, आदिवासिओं और पिछड़े-समुदायों की आजीविका का मूलसाधन हे | 
इस प्रकार निश्चयात्मक ढंग से इस बात को बल मिलता है की 'शिव' अनार्यों के आदि-शासक हैं | निसंदेह यह भी तय हे कि 'अनार्य' संस्कृति की नीव पर ही 'ब्राह्मणी' संस्कृति का महल खड़ा हे |
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'अन्य सण पर्व व देवी-देवताओं के मिथकों की तरह राजा 'शंकर' के बारे में भी गहरा व ऐतिहासिक रहस्य छुपा हुआ है |
कुटिल आर्यों (ब्राम्हणों) के गलत प्रचार के कारण भारतीय मूलनिवासी अपने पुरखों का संघर्ष,रक्षक, महापुरुष एवं संस्कृति भुलाकर आर्यों के जाल और षड्यंत्र में फंस गया |
'महा'....'शिव'..... 'रात्री'|
▼-"महा" यानि 'बड़ा, विशाल.' |
"शिव" यानि (अच्छा,सुन्दर राज्य करने वाला शंकर ही शिव)
'शंकर'....रात्री यानि दिन के बाद अंधकार समय काली रात |
'शंकर' राजा कृषिप्रधान भारतीय संस्कृति का प्रजाहितकारी राजा (शंकर) था. उसे तीसरी आँख,चार हाथ नहीं थे.वे प्रायः ध्यानस्थ एक जगह बैठते थे, जैसा की बौद्ध-धम्म के 'गौतम-बुद्ध' की ध्यानावस्थित मुद्रा है |
घुसपेठी आर्य (ब्राहमण) जम्बूद्वीप भारत में आकर अपना वैदिक षड्यंत्र फ़ैलाने का लगातार प्रयास करते थे | यह जानकारी प्रशासन के गुप्तचर विभाग द्वारा शंकर राजा को हर वक्त मिलती थी.इसी कारण आर्यों को धर पकड़ कर उनके गलत कार्य पर दंडित किया जाता था .एक बार शंकरौर विष्णु आर्य ब्राम्हण के बीच आमने-सामने लड़ाई हो गई थी, तब विष्णु खून से लतपथ होकर हारकर भाग गया था |
'शंकर' राजा की बलाढ्य शक्ति का उसे पता लग गया था |
'शंकर-राजा' का राजपाट चलाने में देखरेख में रानी 'गिरिजा' का बहुत बड़ा सक्रीय योगदान था | 
जब गिरिजा नहीं रही तो अचानक युवा अवस्था में यह दुखित घटना होने के कारण शंकर राजा कुछ खास दिन एकांतवास में वैराग्यपूर्ण अवस्था में रहने लगे |
राजा के व्यक्तिगत जीवन पर नजर रखकर मौकापरस्ती आर्यों ने दक्ष नाम के 'आर्य-ब्राहमण' की लड़की 'पार्वती' को प्रशिक्षण देकर, 'शंकर' की हर बात की जानकारी देकर षड़यंत्र पूर्वक शंकर के करीब पहुंचा दिया गया |
इस प्रकार 'राजा शंकर' की दूसरी पत्नी बनने का अवसर आर्यपुत्री 'पार्वती' को मिला, जिस हेतु जो नियोजन आर्यों ने तैयार किया था, उनको अब शत-प्रतिशत कामयाबी मिलने वाली थी | आर्यों ने ही भारत में पावरफुल नशा का स्त्रोत 'सूरा' प्रथमतः लाया | पार्वती ने अपने साथ 'शंकर' राजा को भी नशीला बनाया; जिस रात 'चौरागढ़' पर पूर्व नियोजन के अनुसार शंकर राजा की हत्या की गयी |
इस दिन को यादगार के तौर पर राजाप्रिय प्रजा हजारो के तादाद में शंकर राजा का जीवन समंध बातो का उल्लेख करते हुये गीत गायन करते हुये, बिना चप्पल हाथ में एक शस्त्र (त्रिशूल) लेकर 'चौरागढ' पर इक्कठा होते थे; यही परंपरा आगे चलती रही |
★एक गीत ऐसा भी ...
"एक नामक कवड़ा 'गिरिजा-शंकर' हर बोला हर हर महादेव |" 
त्रिशूल नहीं वो त्रिशुट है.....अर्थात क्रूर आर्य क्रूर हुन हुन क्रूर
शक इनको निशाना बनाकर सदैव रहना |
★शंकर-महादेव, बड़ादेव,भोला शंकर कैसा ???
-सारे भारत में आर्यों (ब्राम्हण) का वर्चस्व प्रस्थापित होने के बाद आर्य ब्राम्हणों ने अपना उक्त घटना और इनके नायक का ब्राहमणीकरण कर व्यक्ति मात्र में इन्हें देव-देवी संबोधित कर जनमानस में मान्यताकृत कर दिया | भारतीय लोग अब 'शंकर-राजा' का ऐतिहासिक गुणगान करने लगे थे |
मगर इस बात से आर्यों का भंडाफोड़ बार बार होता था | 
इस डर के कारण मझबूरन अपने स्वार्थ के लिए शंकर राजा के आर्य ब्राहमण इंद्र, ब्रह्मा, और विष्णु के साथ 'महेश' (शंकर,बद्यादेव, महादेव) का भी संबोधन जोड़ देते हैं |
यह इतिहास ई.पूर्व से प्राचीन भाग है |
★क्या शंकर राजा की अन्य विकृति थी ?
-शंकर राजा को तीसरी आँख नहीं थी, बल्कि वे तर्कशास्त्र व 'योग' के ज्ञाता थे | 
इस कारण उसी के ज़माने से भारत में पहाड़ियों पर भी कृषि होती थी .पानी रोक कर सालभर इस्तेमाल होता था. यही भाग शंकर राजा के मुंडी में गंगा की धार बताई गयी | उनके कोई चार हाथ नहीं थे, वो कोई भी नशा नहीं करते थे बल्कि वे 'असुर' अर्थात- अ+सुर = सोमरस, दारू, सूरा न पीने वाले बल्कि दूध व शाकाहारी भोजन करने वाले थे | 
'शंकर-राजा' शरीर से एकदम बलाढ्य, ऊँचा, भरा-पूरा, प्रभावी, व आकर्षक व्यक्ति मतवाला राजा था | (शंकर राजा के अन्य प्रचलित नाम :- कैलाशपति, नीलकंठ,शिव,भोला,जटाधारी आदि-आदि |
★विष :-(विष-कन्या 'पार्वती' की काली करतुत) :-
आज वर्तमान में एक फोटो प्रचलित है, जिसमे शंकर राजा जमीन पर मरे पड़े हैं और उसके ऊपर एक चार हाथ वाली स्त्री खड़ीं हैं |
इसी चित्र में गहरा रहस्य छुपा हुआ है | विदेशी आर्य ब्राहमण बनाम मूलनिवासी वीर रक्षक संघर्ष का लेखा-जोखा :- प्राचीन ग्रंथ शिव महापुराण,विष्णु महापुराण, मार्कंडेयपुराण, मत्स्य पुराण, आदि में 'काली' के संदर्भ मिलते हैं |
सत्यशोधक संशोधन रिसर्च करने पर सच्चाई इस प्रकार सामने आती हैं | आर्यों ब्राम्हणों के प्रमुख बदमाशों की बदमाशी रचित हत्याकांडो की असलियत छुपाने कई बार हर ग्रंथो में कपोकल्पित कहानियां नए-नए पात्र जोड़कर आर्यों ने खुद को देव-देवी का स्थान देकर इतिहास का विकृतीकरण, ब्राह्मणीकरण किया है |
★दक्ष आर्य ब्राहमण की प्रशिक्षित बेटी पार्वती की काली करतूत :-
शंकर राजा की हत्या छुपाने झूठी कहावत प्रचलन में लाई गई जो इस प्रकार है :- 
'एक बार राक्षस के रूप में राजा शंकर आया और वो देव लोगों का नरसंहार करने लगा तब स्वर्ग लोक से काली देवी प्रगट हुई और उसने शंकर राक्षस (रक्षक) की और साथियों की हत्या कर दी ,उनके हाथ और मुंडी काटकर अपने बदन पर लटका दिये | इस प्रकार की कहानी प्रचारित कर आर्यों-ब्राहमणों ने एक ऐतिहासिक विकृति पैदा की है |
जबकि इसमें सच्चाई यह है, की शंकर राजा की 'स्वजातीय' (नागगोड) पत्नी 'गिरिजा' के मरने के बाद आर्य ब्राहमणों ने दक्ष आर्य की बेटी राजा शंकर के पीछे लगा दी | जिस उद्देश के लिए 'पार्वती' शंकर के जीवन में आई वह उद्देश जिस काली रात को पूर्ण हुआ वह "महाशिवरात्री" के रूप में प्रचलित हुई |
आर्य 'ब्राहमण' पुत्री पार्वती ने न्यायप्रिय कृषिप्रधान गणराज्य का शंकर राजा के साथ काली करतूत की वो ही प्रसंग छुपाने मूलनिवासियों को हजारो साल सच्चाई से दूर रखने के लिए और एक देवी चार हाथ वाली काली देवी प्रचलन में लाई गयी |
विदेशी आर्य ब्राहमणों की टीम और आर्य-पुत्री 'पार्वती' का रचित षड्यंत्र, शंकर राजा का हत्याकांड पर पर्दा डालने के लिए यह सब किया गया | जिस काली रात को पार्वती ने शंकर राजा की हत्या करने के लिए काली करतूत की वो ही दिन 'महाशिवरात्री' के रूप में प्रचलित हुआ | इस घटना को लक्ष्य बनाकर आर्य ब्राहमणों ने 'काली' शब्द पकड़कर रखा | मगर यह एक गहरा रहस्य अब हमें गहराई से समझना होगा |
★रानी गिरिजा का आर्य विरुद्ध संग्राम :-
-'नाग-गोड़ी' संस्कृति का राजा 'शंकर' इनकी पत्नी रानी गिरिजा थी, जिन्हें 'काली' माता ऐसा भी नाम प्रचलित किया है | रानी गिरिजा भी महायुद्ध करने निकली और विदेशी आर्यों का नाश किया | 
रानी की यह वीरता 'मूलनिवासियों' द्वारा सावधानी और अभिमानपूर्वक अपनी संस्कृति द्वारा जपा हुआ है | काली गिरिजा के चित्र और मूर्ति आज भी देखने को मिलती है. रानी गिरिजा के गले में शेंडिधारी विदेशी आर्यों के सरो(धड़) की मालायें (हार) और कंबर में विदेशी आर्यों की उंगलियां और हाथ सजाये हुये दिखती हैं |
★गिरिजा का खून :-
-शंकर के विंनती से गिरिजा(काली) ने युद्ध बंद किया. विदेशी आर्यों ने युद्ध बंदी (करार) के बहाने दिखावा करके नियोजनबद्ध षड्यंत्र रचा | आर्यकन्या पार्वती का विवाह शंकर के साथ रचाया गया. आर्य कन्या पार्वती ने शंकर की मर्जी संपादन करके रानी गिरिजा को अकेले गिराया | 
आर्यों ने शंकर-गिरिजा को पति-पत्नी का गैरसम्बन्ध करके विकृत बीज 'पार्वती' के माध्यम से बोने की शुरुआत की ताकि आर्यों के षड़यंत्र शंकर पहचान नहीं सके | इसीलिए ब्राहमण आर्यों ने मूलनिवासी 'शंकर' को "भोला-शंकर" नाम दिया |
★शंकर का खून अर्थात "महाशिवरात्रि"★
-पुराण में समुद्र मंथन की एक कहानी प्रसिद्ध है जिसके अंतर्गत देव-दानवों अर्थात मूलनिवासी v/s आर्यो (सूर-असुरों) ने मिलकर समुद्र मंथन किया, तब 'मन्दार' पर्वत को मथने का आधार बनाया और घुसने के लिए 'शेषनाग' (प्राचीन नागवंशी रूपी) की रस्सी का उपयोग किया |
इस कारण पृथ्वी हिलने लगी. इससे पृथ्वी पर मानव भयभीत हुये और लोगों को लगने लगा की अब
पृथ्वी का प्रलय निश्चित होगा,तब पृथ्वी को बचाने के लिए विष्णु ने कुर्मावतार (कश्यप) यानि (कछुवा) धारण करके पृथ्वी अपने पीठ पर उठाई.समुद्र मंथन चालू रहने पर उस समुद्र मंथन से 14रत्न बाहर निकले. उन रत्नों में से एक रत्न जहर (विष) भी था | पुराणानुसार इस 'विष' के कारण पृथ्वी का नाश निश्चित था | पृथ्वी को बचाने के लिए वह विष (जहर) पीना आवश्यक था; अतः जहर पीने के लिए कोई 'आर्य-देव' सामने नहीं आया, तब 'शिव-शंकर' ने वह विष ग्रहण करके पृथ्वी को बचाया; ऐसी कहानी प्रचलित है |
मूलनिवासियों को यह सत्यता पता नहीं चले इसीलिए ब्राह्मणों ने ऐसी गैरसमझ पैदा करके वास्तविकता को बगल देने का प्रयत्न करते, लेकिन 'शंकर' की विष प्राशन की सत्यता को नकारते आये नहीं.विष्णु
ब्राहमण आर्य ने 'शंकर' को गुप्तता से पार्वती के माध्यम से 'विष' दिया होगा या 'शंकर' को विष प्रशन करने की सक्ती की होगी. इन दोनों घटना में से कुछ भी हो, लेकिन इतना मात्र निश्चित है की 'शिवशंकर' का विष प्रयोग द्वारा आर्य ने खून किया और उसकी सिहासत अपने गले में घुसा के मूलनिवासी बहुजनों को गुलाम (दास) बनाया | शंकर का नीला शरीर भी जहर के कारण हुआ है, यह सत्य है | यह सत्यता मूलनिवासियों के ध्यान में आने न पाये इसीलिए शंकर को ही 'नीलकंठ' बोला गया और प्रजा में ऐसी पह्लियों को जोड़कर की साक्षात् तुम्हारा शिवशंकर नीला शरीर धारण करके देव (भगवान) बना |
राजा शंकर का मृतदेह देखने के लिए मूलनिवासियों ने 'पचमढ़ी' में गर्दी की. भूख-प्यास भूलकर शिवजी के शोक दुःख में डूब गए | शंकर के दुःख में मूलनिवासियों ने गीत-गान गाये जो आज भी गावं-देहातो में गाये जाते हैं | 
उस समय के महाशिवरात्रि के दिन से शंकरजी के स्मृति में भीड़ इक्कठा होती है इस दिन अन्न सेवन न करके उपवास करते हैं | 
शिवशंकर के गीत गाते-काव्यात्मक शैली के माध्यम से मूलनिवासी शंकर की याद में, शंकर की जीवनी गानों से जीवित रखी है.
हमारे महापुरुष शंकर का मृत्यु दिन और विदेशी आर्यों ब्राम्हणों का विजय दिन महाशिवरात्रि के रूप में आज भी मूलनिवासी त्यौहार मन रहे हैं.अपनी कपट निति ध्यान में न आने पाये इसीलिए शंकर को देव बना के प्रजा को पूजने लगाया. शंकरजी की महानता बढ़ाने के लिए ब्राहमण संपूर्ण विश्व की निर्मिती करता है | 'विष्णु' को विश्व का पालन पोषण करता और 'शंकर' यह सृष्टि का देखभाल करता यह
झूठी कहानी मनुवादियों (ब्राम्हणों) ने निर्माण करके और 'शंकरजी' को 'श्मशान-भूमि' में बसाया है, यह देखने को आज भी मिलता है |
★मूलनिवासी महाशिवरात्रि :★
- सत्ता और धर्म सत्ता की बात को छोड़ कर यदि भारत के लोग मानस की बात की जाये तो वह हमेशा लोकसत्ता का हामी रहा है.इस लोक सत्ता के जबरदस्त प्रमाण के रूपों में और अनेक नामों से लोग पूजते रहें हैं.ये दो महापुरुष है- शिव और कृष्ण. ये दोनों भी अनार्य(ब्राम्हण नहीं) है | ये कोई देवता एवं अवतार नहीं | इन्हें ब्राहमणी कलम ने देवता और अवतार बना कर लोगों के सामने रख दिया है और इन्हें पूजा का उपदान बना दिया गया है | अभी फरवरी २००७ में कोटा के 'थेगडा' स्थित 'शिवपुरी' धाम में 525 शिवलिंग स्थापित करके लोगों को पूजा-पाठ के ढकोसलों में और इजाफा कर दिया गया है.यह अंध प्रचार दिन रात जारी है |
यहाँ हम केवल शिव की चर्चा करेंगे.आज 'शिव' की पूजा के नाम पर जो वाणिज्य-व्यापार शुरू कर दिया गया है,उस घटनाओं में शिव का वास्तविक व्यक्तित्व दफ़न हो गया है | यह 'शिव' के शत्रु पक्ष अर्थात आर्य ब्राम्हण लोगों की साजिश है की वे पूजा के उपदान बना दिए गए और मूलनिवासियों के परिवर्तन,क्रांति की प्रेरणा नहीं बन पाये.भारत के मूलनिवासियों को शिव ऐतिहासिक व्यक्तित्व और चरित्र का गहराई से अध्ययन करना चाहिए और उनके ब्राम्हण विरोधी परिवर्तनवादी क्रिया कलापों को बहुजन समाज के सामने रखकर उन पर चलने को प्रेरित करना चाहिए |
"शिव" का शाब्दिक अर्थ होता है- 'कल्याणकारी'★
'शिव' को उनके शत्रुओं अर्थात-आर्य ब्राम्हणों ने पहले रूद्र कहा, फिर 'महादेव' और शिव आदि के नाम रख दिए गयें | उन्हें ईश्वर बना दिया गया और 'पिपलेश्वर, गौतमेश्वर, महाकालेश्वर, जैसे हजारों नाम रख दिए | जहाँ शिवलिंग या शिव मंदिर की स्थापना की,वाहन के प्राकृतिक स्थानों,नदी-नालों, पेड़ों, पहाड़ियों आदि के नाम पर शिव का नामकरण करके वहाँ के मूलनिवासियों को पूजा-पाठ में लगा दिया.
'शिव' यज्ञ विरोधी हैं,राज्य-साम्राज्य को नहीं मानते, बल्कि वे "गण" व्यवस्था को मानते हैं | वे व्यक्ति हैं,विचारवान व्यक्ति हैं, विवेकशील व्यक्ति हैं.नायक हैं,उनकी सत्ता लोकसत्ता है.उन्होंने अपनी सत्ता,अपने गणों के साथ दक्ष (ब्राम्हण/पार्वती का पिता) की यज्ञ संस्कृति को ध्वस्त किया. यज्ञ संस्कृति के लोग जीते जी उन्हें अपने पक्ष में नहीं कर सके ,किन्तु उनकी मृत्यु के बाद उन्हें देवता और भगवान बना कर उनका उपयोग करने में वे सफल हुये.यह प्रयास शास्त्रकारों का रहा.
इसके विपरीत शिव लोक में,जन में ,मनुष्य के रूप में विद्यमान है.हिमालय की ऊँचाईयों पर रहने वाले भाट लोग 'शेषनाग' और 'शिव' की पूजा करते हैं. वे ऐसा इसीलिए करते हैं क्यों की 'शिव' उनके पूर्वज हैं .कैलाश पर्वत शिव का घर है.शिव की पत्नी, गौरी, गिरिजा, पार्वती हैं. दक्षिणी राजस्थान की अरावली पर्वत श्रेणियों में रहने वाले आदिवासी गमेती,भील,मीणा,भादवा महीने में सवा महीने तक एक लोक
नाट्य का मंचन करते हैं .इसका नाम हैं "गवरी" गवरी में राई और बुडिया नामक पात्र पार्वती और शिव का स्वांग भरते हैं. हजारो सालों से ये परंपरा चली आ रही है.लोक नाट्य की इस मंचन परंपरा को "गवरी रमना" कहते हैं |
★ "रमना" का अर्थ है "रमण करना".
'शिव' कोई चमत्कारिक और दैवीय पुरुष नहीं वरन मूलनिवासियों की संस्कृति की रक्षा के प्रतीक हैं. वे 'यज्ञ-विध्वंसक' है | यज्ञ करना ब्राम्हणों की संस्कृति है, जिसमे गायों की,अश्वों की बलि दी जाती थी और उन्हें ब्राम्हण खाते थे | 'गौ-मेध' यज्ञ और 'अश्व-मेध' यज्ञ ही क्यों, ये आर्य ब्राम्हण तो 'नरमेध' यज्ञ भी करते थे जिसमे 'नर' की बलियां भी देते थे | 
मूलनिवासी तो पशु-प्रेमी, पशुपालक, कृषि कार्य से अपना जीवन यापन करने वाले थे; इसीलिए वे यज्ञ के नाम पर 'पशुओं' को काट कर खाने वालो का विरोध करते थे | 'शिव' भी 'कृष्ण' की तरह विदेशी लुटेरें
आर्यों का नाश करने वाले थे | 'शिव' और 'कृष्ण' को सेतु बनाकर चालक आर्य ब्राम्हणों ने भारतीय जन मानस में घुसबैठ बनायीं. कृष्ण और शिव मुलिवासियों के नायक थे. इनको ब्राम्हणी वर्ण व्यवस्था शुद्र
और अतिशूद्र मानती है.ये बहुजन नायक हैं. इन्हें ब्राहमणी व्यवस्था में लेने के लिए ब्राहमणों ने इनकी पूजा शुरू की |
अतः समझदार मूलनिवासी बहुजन अपनी महाशिवरात्रि आने ही तरीके से मानते हैं.वे शिवलिंग और
शिवमूर्ति की पूजा उपासना नहीं करके उनके द्वारा किये गए विध्वंस जैसे क्रिया कलापों का गहन अध्ययन करके उसके प्रचार-प्रसार का कम करते हैं |
शिव का रंग रूप भी तो 'ब्रह्मा' और ब्राम्हणों से मेल नहीं खाता है. वह 'श्याम-वर्णी' है और उनकी वेशभूषा आदिवासियों जैसी हैं.उनका ब्रम्हा और 'विष्णु' के साथ जोड़ है,'लेकिन वे तीसरे दर्जे पर है |
उनकी भूमिका 'ब्रह्मा-विष्णु' की तरह स्पष्ट नहीं है.वह शक्तिमान भी है और त्रिशूल को अपने हथियार के रूप में धारण करते हैं, परन्तु वे 'ब्रह्मा-विष्णु' के सहायक की भूमिका निभाते हैं, यह केवल ब्राहमणों की चाल है |
शिव नृत्य के प्रेमी है |
पार्वती 'शिव' की पत्नी है .उन्हें 'गौरी' भी कहा जाता है | सरस्वती और लक्ष्मी की तरह उनकी कोई स्पष्ट भूमिका नहीं है. वह शिव की अनेक गतिविधियों में उनके साथ रहती है. लक्ष्मी और सरस्वती के विपरीत 'पार्वती' शिव के अनेक कार्यों पर सवाल खड़े करती हैं | वह कुछ ऐसी भूमिकाएं अदा करती हैं जो पूरी तरह से हिन्दुवाद के दायरे में नहीं आती हैं. शायद यह जोड़ी 'आदिवासी' मूल की जोड़ी है |
★शिव-पार्वती की जोड़ी के निर्माण का उद्देश :-
'आदिवासियों' (आदिकाल से रहने वाले मूलनिवासी भारतवासी) को धीरे-धीरे पूरी तरह से ब्राम्हणवादी सभ्य समाज के दायरे में खिंचा जा रहा था.लेकिन उनकी आबादी समस्यात्मक और अनियंत्रणीय थी | वे ब्रह्मा और विष्णु के साथ खुद को जोड़ नहीं पा रहे थे, क्योंकी 'ब्रह्मा' और 'विष्णु' दिखने में उनसे भिन्न लगते थे. आदिवासियों में समर्थन का आधार बना पाने में ये देवता पर्याप्त नहीं थे, इसीलिए ब्राम्हणों ने शिव और पार्वती के रूपों की रचना की |
ये दोनों देखने में आदिवासी लगते थे लेकिन वे हर बात में ब्राम्हणवाद के प्रभुत्व को स्वीकार करते थे. इसीलिए यह तथ्य है की 'शिव' और 'पार्वती' के चरित्र आदिवासियों के बीच समर्थन हासिल करने का माध्यम बन गये की 'शिव' ब्राहमणवाद का प्रचार करते हैं, वह हिंसा के जरिये लोगों को ब्राम्हणों के प्राधिकार को मानने के लिए मजबूर करते हैं |
'आदिवासियों' को दबाने में इन दो चरित्रों का बखूबी इस्तेमाल किया गया है | यह ब्राहमणवादी सिद्धांत और सहयोजन के व्यवहार का एक हिस्सा है | 'शिव' के "आत्मसातीकरण" ने ब्राहमणों के सामने अपनी ही तरह की दिक्कतें पेश कीं. एक लम्बे समय की अवधि में 'आदिवासियों' को, खासतौर पर दक्षिण भारत के आदिवासियों को हिंदू ब्राहमणोंवादी व्यवस्था में आने के लिए बाध्य किया गया था, लेकिन आदिवासी पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों ने 'हिन्दुवाद' में एक रगड़ पैदा की |
'विष्णु' से 'शिव' का पंथ तुलनात्मक रूप से ज्यादा उदार था. इस आधार पर उन्होंने 'हिन्दुवाद' में अपने लिए स्वायत्तता पर जोर दिया.वैष्णव मत धीरे-धीरे कट्टरतावादी ब्राम्हणवाद बनता जा रहा था, जबकि 'शैवमत' हिन्दुवाद का उदार संप्रदाय था | वासव के वीर शिव आंदोलन के उभार के साथ ही 'शैवमत' ने हिंदू ब्राम्हण वाद को भी चुनौती देना शुरू कर दिया, लेकिन राष्ट्रवादी अवधि के दौरान हिंदुत्व संप्रदाय ने एक अखंड हिंदुत्व की अवधारणा प्रदर्शित करके व्यवस्थित ढंग से इन अंतरविरोधो को सुलझाने की कोशिश की |
आज यह देखने में आता है 'शैववादी' हिंदुत्व, वैष्णवी 'हिंदू-ब्राहमणवाद' के समान ही दलित बहुजन विरोधी है | 80 और 90 के दशक में लड़ाकू 'हिंदुत्व' का पुनरुत्थान हुआ.उसने इन पंथों-पांतो को हमेशा के लिए बंद कर दिया | उसने अपने आपको अखंड राजनितिक शक्ति (हालांकि 'शिवसेना' के हिंदुत्व और भाजपा के 'हिंदुत्व' के बीच जो दरारे हैं वो शैव मत और वैष्णव मत के बीच की दरारों की अभिव्यक्तियाँ हैं, फिर भी वे वोट पाने के लिए राम के चरित्र का इस्तेमाल करने में एक है) के रूप में पेश किया | भविष्य में अगर पढ़े-लिखे दलित बहुजन हिंदुत्व के खिलाफ कोई आधुनिक चुनौतियाँ पेश करते हैं, तो ऐसे में 'वैष्णव-मतवादी' हिंदुत्व शक्तियों और 'शैवमतवादी' हिंदुत्व की शक्तियों के बीच एक होना निश्चित है | ये बहुजनों में सहमती बनाने और उनके खिलाफ ताकत का इस्तेमाल करने के दोनों कामों में एकजुट हो जायेंगे | 
अब तक ब्राहमणवाद 'बहुदेववादी' त्रिमुर्तियों की रचना कर चूका है .वह देवरूप में चरित्रों के सहयोजन करने की कला में और इन चरित्रों के खाकों से जनसमूह को बाहर रखने में महारथ हासिल कर चूका है .इस तरह से व्यापक जनसमुदाय के दमन और शोषण के असली उद्देश को काफी हद्द तक पूरा किया जा चूका है |

14 comments:

  1. Abe chutiye,
    Ye jo sach-jhooth mila kar tune likha hai iske bare me tujhe kaha se pata chala. Haramkhor, computer par likhne se koi vidwan nahi ho jata hai

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  2. कितने बडे बकचोद हो बे सुधर जाओ अभी समय है

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  3. Yes.... This information is absolutely ryt... 👍👍👍👍👍

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  4. These article is not informative but it is an Assumption. Some parts of this article can be traced as shahu maharaj of kolhapur we're not allowed to recite mantras and many more examples can be given. Pls do not use foul language to prove yourself in comment section.

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  5. Bilkul sahi hai manowadi ko mirchi lagegi

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  6. Jai bhim jai Buddhism thank you aisa post likhye

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  7. इनी ब्राह्मणों ने भारत के लोगों को मूर्ख बनाया है और लोगों को जान से मारते आए है, में प्रन करता हूं कि जहां भी ब्राह्मण लोग दिखे उसे भारत से भगा दू ,वैसे इन ब्राह्मणों को मारकर फेंक देना चाहिए,

    ये ब्राह्मण अफ्रीका के साइड से आए थे इन्होंने अफ्रीका में भी कब्जा करने की कोशिश करी थी तो वहां से इन्हें लात मारकर बाहर का रास्ता दिखाया गया,

    अगर दुनिया में पूजा पाठ,मंदिर ,गुरुद्वार बंद हो जाए तो इनका धंधा बंद हो जाएगा,पर हमारे भारत के लोग मुंह उठा के पूजा करने चले जाते है, जो भगवान आपको कुछ नहीं से सकता तो खाक मिलता है आप को ऐसी जगहों पर जाने का,आज भारत क्यों पीछे ?यही कारण लोग धर्म के नाम पर एक दूसरे से लड़ते है और इन हर पूजा पाठ को ब्राह्मणों के कंट्रोल में है।

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  8. gautam buddh ne apni biwi aur bachhe ko chhod kar chale gaye aur duniya ko brahmacharya ka gyan diya kya ye sahi sab kuch karke dusro ko ulti sikh dena

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  9. Jay bheem nmo buddhay

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