Thursday, November 5, 2020

बुद्ध वचनों की प्रमाणिकता Authenticity of Buddha's Words

 



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बौद्ध धम्म पर त्रिपिटक व अन्य विशेष पुस्तकों का सैट Complete Tipitak (Tripitak) Set

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सिद्धार्थ गौतम 35 वर्ष की अवस्था में सम्यक-सम्बुद्ध हुए थे और उन्होंने 80 वर्ष की पकी हुयी अवस्था में शरीर छोड़ा था. इस बीच 45 वर्षों में उन्होंने 82000 उपदेश (सुत्त) कहे थे. उनके उस समय के पहुँचे हुए श्रावक अर्हन्तों ने भी 2000 उपदेश दिए थे, जो अत्यंत सारगर्भित थे. समझदार लोगों ने इन 84000 उपदेशों का संग्रह कर इनका तीन पिटकों (धार्मिक वाङमय) मे संपादन किया जो “तिपिटक” कहलाया.


1. विनय पिटक: विनय पिटक में भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों के विनय (नियमों) का संग्रह है.

2. सुत्त पिटक: सुत्त पिटक में सामान्य लोगों (गृही-साधकों) को दिए गए उपदेशों का संग्रह है.

3. अभिधम्म पिटक: अभिधम्म पिटक में शरीर और चित्त के परस्पर संयोग व प्रभाव के एवं ध्यान की उच्च अवस्थाओं के वैज्ञानिक विश्लेषण का संग्रह है.


ये तीनों पिटक काल के अनुसार न होकर विषयानुसार संग्रहित हैं. बड़े-बड़े सुत्त ‘दीघ निकाय’ में कुछ छोटे ‘मज्झिम निकाय’ में – कुछ इस तरह संग्रहित है. उन दिनों सभी परम्पराओं के धार्मिक वाङमय श्रुती और स्मृति के आधार पर ही अक्षुण्ण रखे जाते थे. तब यही प्रथा थी. 

सम्यक-सम्बुद्ध ने जब महापरिनिर्वाण प्राप्त किया तब एक विशेष घटना घटी. वृद्धावस्था में प्रव्रजित हुए एक नए भिक्षु सुभद्र ने अपनी बाल-बुद्धि के कारण तथागत के महापरिनिर्वाण की सूचना पाने पर हर्ष प्रगट करते हुए यह घोषणा की कि - ‘हम उस महाश्रमण के आदेशों से मुक्त हो गए है, अब हमारी जो इच्छा होगी वही करेंगे’.

कीचड़ में से कमल की भाँती - कभी-कभी घोर अमंगल में से भी महामंगल का प्रादुर्भाव हो जाता है. यही हुआ. उस समय के समझदार लोगों का माथा ठनका. दूरदर्शी महास्थविर महाकश्यप ने सुभद्र के शब्दों को सुनकर तत्क्षण यह निर्णय किया कि लोक-कल्याणार्थ बुद्ध-वाणी को चिरकाल तक अविकल रूप में सुरक्षित रखने के लिए शीघ्र ही इसके ‘संगायन’ (एक साथ गायन) का आयोजन करना चाहिए. तथागत के महापरिनिर्वाण के तीन माह होते ही पांच सौ अर्हन्तों की एक सभा हुई जिसके सभी सदस्य 45 वर्ष के बुद्ध-शासन में दिए गए उपदेशों के सत्यसाक्षी थे. इन लोगों में भिक्षु आनंद जैसा व्यक्ति भी था जो बचपन से ही उनके साथ रहा था और पिछले 25 वर्षों से तथागत के निकटतम संपर्क में रहा, जिसे तथागत के मुख से नि:सृत वाणी (एक-एक शब्द) कंठस्थ थी. इन 500 अर्हन्तों ने मिलकर राजगृह में बुद्ध-वाणी का ‘संगायन’ किया. जिसमें समस्त बुद्ध-वाणी अपने शुद्ध रूप में सम्पादित एवं संग्रहित की गयी. यह “प्रथम संगीति” कहलायी.

तथागत द्वारा उपदेशित सद्धर्म को शुद्ध रूप में चिरस्थायी रखने के लिए स्वयं तथागत ने यह आदेश दिया था – “... ये वो मया धम्म अभिञ्ञा देसिता, तत्व सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म, अत्थेन अत्थं ब्यञ्ञनेन ब्यञ्ञनं सङ्गायितब्बं, न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं चिरट्ठितिकं ...।”. – “... जिन धर्मों को मैंने स्वयं अभिज्ञात करके तुम्हें उपदेशित किया है, तुम सब मिल-जुल कर बिना विवाद किये अर्थ और व्यंजन सहित उनका संगायन करो जिससे की यह धर्माचरण चिरस्थायी हो ...।”.

अतः बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् देर-सवेर बुद्ध-वाणी का संपादन-संगायन तो होता ही, परन्तु उसे इतना शीघ्र (महापरिनिर्वाण के तीन माह होते ही) आयोजित किये जाने के लिए भिक्षु सुभद्र निमित्त बना. हम सुभद्र के आभारी हैं.

“चिरं तिट्ठतु सद्धम्मो” – “सद्धर्म चिरकाल तक स्थाई बना रहे”.


🌷बुद्ध-वाणी को शुद्ध रूप में सुरक्षित रखने की लिए उसका पुनः-पुनः (छः बार) संगायन किया गया. छहों संगीतियों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार से है:-


1. पहला संगायन: तथागत के महापरिनिर्वाण के तीन महीने बाद 544 ईसा पूर्व मगध सम्राट अजातशत्रु के संरक्षण में राजगृह की ‘सप्तपर्णी महापाषान गुहा’ में प्रथम संगीति का आयोजन हुआ, संगायन की अध्यक्षता भदंत महाकाश्यप ने की. भदंत उपाली ने विनय-संबंधी एवं आनंद ने अभिधम्म-संबंधी प्रश्नों के उत्तर दिए. सभी 500 अरहंत भिक्षुओं ने समर्थन किया. 500 अर्हन्तों द्वारा गाये जाने के कारण यह ‘पंचसतिका संगीति’ भी कहलायी और यह सात माह तक चली.


2. दूसरा संगायन: प्रथम संगायन के 100 वर्ष बाद द्वितीय धर्म संगीति का आयोजन 444 ईसा पूर्व वैशाली के राजा कालासोक के संरक्षण में संपन्न हुआ. संगायन की अध्यक्षता स्थविर रेवत ने की. इसमें सात-सौ भिक्षुओं के भाग लेने के कारण यह ‘सत्तसती संगायन’ कहलाया.


3. तीसरा संगायन: तृतीय संगीति का आयोजन 326 ईसा पूर्व सम्राट धम्मासोक (सम्राट अशोक) के संरक्षण में पाटलिपुत्र के अशोकाराम में हुआ. स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स ने इसकी अध्यक्षता की. इसमें एक हजार (1000) अरहंत भिक्षुओं ने नौ महीनों तक संगायन किया. भदंत मोग्गलिपुत्त तिस्स द्वारा ‘मिथ्यामार्गियों को शुद्ध-धर्म की ओर आकर्षित करने के लिए’ लिखा गया ‘कथावत्थु’ नामक बहु-उपयोगी ग्रन्थ का भी संगायन/संकलन किया. इसमें 500 ऐसे प्रश्नोत्तरों का समावेश है जिनसे बुद्ध तथा उनकी शिक्षा के बारे में उत्पन्न भ्रांतियों का निराकरण होता है. संगायन के पश्चात सम्राट अशोक ने धर्मप्रसारण के लिए नौ स्थविर भिक्षुओं को विभिन्न देश-प्रदेशों में भेजा.

पहला, दूसरा और तीसरा संगायन भारत की पावन भूमि पर आयोजित हुआ.


4. चौथा संगायन: चौथा संगायन 29 ईसा पूर्व श्रीलंका में राजा वट्टगामणी अभय के संरक्षण में और महास्थविर रक्खित की अध्यक्षता में पांच सौ (500) तिपिटकधर (जिन्हें त्रिपिटक कंठस्थ है) भिक्षुओं द्वारा सकुशल संपन्न किया गया. इस संगीति का अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष यह रहा कि उन दिनों तक लेखनकला बहुत उन्नत हो चुकी थी, अतः सम्पूर्ण तिपिटक और अट्ठकथाओं के संगायन के साथ-साथ इसे पहली बार ताड़-पत्रों पर लिपिबद्ध भी कर लिया गया और अनेक सेट (समूह) बना कर रखे गए. बुद्धानुयायी देशों में श्रीलंका की यह बहुत महत्वपूर्ण भेंट हुई. इससे बुद्ध-वाणी अपने शुद्धरूप में कायम रही. इस प्रकार चतुर्थ संगीति परम कल्याणकारिणी सिद्ध हुई.


5. पांचवा संगायन: स्वर्णभूमि (बर्मा, म्यांमार) और तम्बपन्नी (श्रीलंका) का समय-समय पर तिपिटक पर, विशेषतः विनयपिटक पर, परस्पर विचार-विमर्श का आदान-प्रदान होता रहा. पांचवे धर्म संगायन का आयोजन भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 2400 वर्ष बाद सन् 1871 में तत्कालीन बरमी नरेश मिं-डो-मिन के संरक्षण में बर्मा के मांडले नगर में हुआ. अतः इसमें 2400 विशिष्ट विद्वान भिक्षुओं ने भाग लिया, जिन्होंने पांच महीने में बुद्ध-वाणी का संगायन पूरा किया व महास्थविर भदंत ऊ जागराभिवंश, भदंत ऊ नारिंदाभिधज, भदंत ऊ सुमंगल सामी ने बारी-बारी से अध्यक्षता की. 

ताड़-पत्रों की आयु बहुत कम होती है अतः कुछ अनुभवी कलाकारों को साथ लेकर भिक्षुओं ने सारे तिपिटक को 729 संगमरमर की पट्टियों पर कुरेदकर (खुदवाकर) अंकित कर दिया, ताकि तथागत की वाणी चिरस्थायी हो सके. बरमी नरेश मिं-डो-मिन ने मांडले की पहाड़ी के चरणों में इन 729 संगमरमर की पट्टियों पर मुकुटनुमा चैत्य बना कर भव्य और दर्शनीय बना दिया. यह संसार की सबसे बड़ी पुस्तक है.


6. छटा संगायन: छटा संगायन तत्कालीन बर्मी सरकार के प्रधानमंत्री ऊ नू के संरक्षण में 17 मई, सन् 1954 में रंगून के कबाए क्षेत्र में आयोजित हुआ. यहाँ प्रथम संगायन की महापाषाण गुहा के अनुरूप एक विशाल कृत्रिम सभाकक्ष बनाया गया. 

1954 में भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 2500 वर्ष पूरे हो चुके थे. यह प्रथम बुद्धशासन का अंतिम वर्ष था. इसलिए इस संगायन में 2500 प्रबुद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया. इसमें बर्मा (म्यांमार) के भिक्षुओं के अतिरिक्त श्रीलंका, कम्बोडिया, भारत, लाओस, नेपाल और वियतनाम सहित अनेक देशों के प्रबुद्ध भिक्षु इस संगायन में सम्मिलित हुए. भारत को छोड़ कर, सभी देशों के भिक्षु “अपनी-अपनी लिपि का तिपिटक” साथ लाये. सभी देशों की वाणी के परस्पर मिलान से यह पाया गया कि भले ही हर देश की अपनी-अपनी लिपि और अपना-अपना उच्चारण है, पर भगवान् की वाणी में कोई अंतर नहीं है. अलग-अलग देशों में सुरक्षित बुद्धवाणी 2000 वर्षों के अंतराल के बाद भी सामान पायी गयी. वह सर्वत्र एक जैसी है. दरअसल बुद्धावाणी के पाठ में परिवर्तन करना बहुत बड़ा अकुशल कर्म समझा जाता था. इस संगायन में भदंत महसी ने धर्म-संबंधी प्रश्न पूछे और भदंत विचित्तसाराभिवंस ने विद्वत्तापूर्ण और संतोषजनक उत्तर दिए. भदंत विचित्तसाराभिवंस स्वतंत्र बर्मा के तिपिटकधर (जिन्हें त्रिपिटक कंठस्थ है) हैं. बरमा में आज भी (2015 में) अनेक तिपिटकधर हैं. 

यह संगायन दो वर्ष तक चला और मई 1956 में पूरा हुआ. 1954-55 प्रथम बुद्धशासन (2500 वर्ष) का अंतिम वर्ष था और 1955-56 द्वितीय बुद्धशासन (2500 वर्ष) का प्रथम वर्ष था. इस संगायन तक मुद्रण कला विकसित हो चुकी थी. अतः समस्त बुद्ध-वाणी (पालि साहित्य) बरमी लिपि में मुद्रित होकर पुस्तकों में प्रकाशित हो गयी. इससे बुद्धवाणी को और अधिक स्थायित्व प्राप्त हो गया. भारत की इगतपुरी नगरी के “विपश्यना विश्व विद्यापीठ” संस्था ने देवनागरी में सम्पूर्ण तिपिटक, अर्थकथाओं, टीकाओं और अनुटीकाओं सहित 140 सुन्दर ग्रंथों (Paper life 400yrs) में प्रकाशित कर बुद्ध साहित्य के पंडितों को नि:शुल्क भेंट दिया. इतना ही नहीं, बल्कि सीडी-रोम में देवनागरी, रोमन, सिंहली, बरमी, थाई, कम्बोडियन (खमेर), मंगोलियन इन सात लिपियों में सारा साहित्य निवेशित किया. अब इसे सर्वसुलभ बनाने के लिए भारत की अन्य भाषाओं यथा – कन्नड़, मलयालम, तेलुगु, गुरुमुखी, गुजराती, बंगला, तिब्बती आदि लिपियों में इंटरनेट पर उपलब्ध करा दिया है. (Entire “Tipitak” can be downloaded FREE from - www.dhamma.org)

बर्मा ने साहित्य ही नहीं बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुरु-शिष्य परम्परा से तथागत की साधना (विपश्यना) को भी संभालकर रखा.


इस संगायन के पश्चात द्वितीय बुद्धशासन (>1955-56) आरम्भ होने पर पूज्य भदंत लैडी सयाडो द्वारा प्रशिक्षित प्रथम गृहस्थ धर्माआचार्य सयातैजी द्वारा प्रशिक्षित परम पूज्य ऊ बा खिन विश्व विश्रुत विपश्यनाचार्य हुए. उन्होंने केवल बर्मियों को ही नहीं बल्कि विदेशी गृहस्थों को भी विपश्यना सिखाई. इस विपश्यना विद्या को भारत सदियों पहले खो चुका था. यह विद्या भारत आयी (1969 में) है और यहाँ जड़ें जमाकर विश्व में फैल रही है.

हम आभारी हैं लाओस, कम्बोडिया, थाईलैंड, श्रीलंका, बर्मा एवं अन्य देशों के जिन्होंने पिछले 2200 वर्षों से आज तक बुद्धवाणी को अपने शुद्ध रूप में कायम रखा. अतः जिस बुद्धवाणी पर आज काम किया जा रहा है वह तथागत के मुख से निःसृत वाणी है, और सर्वथा प्रमाणिक है.


(स्त्रोत: पाली वांग्मय त्रिपिटक, वि. वि. वि.)

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🌷" Venerable Bhante  Ānanda."🌷


Ānanda was recommended to him as the 500th member of this gathering. 


Ānanda was born on the same day as Gotama the Buddha, was his cousin and had spent his childhood and youth with him. When the Buddha became enlightened, Ānanda was one of many family members who renounced the householder’s life and joined him. 


As the number of followers, and so the work, grew, the Buddha needed an assistant. Some came, but with various motives. The usual one was the hope for a private viewing of miracles, although in public the Buddha discouraged miracles. Another was to hear the answers to certain philosophical questions which he would never answer in public. Such people could not stay long, and they left.


As the Buddha grew in age to fifty-five, the need for a stable personal assistant was accepted. 


Many senior monks were very eager to serve him so closely, but he was known to prefer Ānanda. Yet Ānanda remained silent. He actually asked the Buddha to agree to some terms. There were seven or eight, very healthy terms, and the Buddha accepted all of them. 


One was that if ever the Buddha gave a discourse at which Ānanda was not present, the Buddha must, on returning, repeat the discourse to him. Thus he heard every discourse for the last twenty-five years of the Buddha’s life. He had also heard them before that time. 


Ānanda had a wonderful faculty of memory due to his practice and past good qualities. If he heard something once, he could repeat it any time, word for word, like a computer or tape recorder today.


Ānanda had served the Buddha for twenty-five years. 


He had been so close to him, was his great personal devotee, yet he was not an arahant, not fully liberated. 


He was only a sotāpanna, having reached the first stage of liberation after the initial experience of Nibbāna. Beyond that is the stage of sakadāgāmī, then anāgāmī, then arahant. 


You should understand from this that a Buddha cannot liberate anyone. 


Ānanda also knew Dhamma so well: thousands taught by him were arahants, yet he was continually serving the Buddha, without the time to progress himself.


So Mahākassapa approached him, saying that now that the Buddha had passed away Ānanda had the time, and as a teacher he himself knew the technique so well. 


He asked him to work to become an arahant and join the gathering since he would be a great asset there. 


Ānanda gladly agreed; he would practise for a few days, become an arahant, and join them.He started working very vigorously, aiming to become an arahant. As a teacher he advised others not to develop ego, as it was a dangerous obstacle. Often the teacher when he practises forgets his own teaching, and this is what happened. His aim was—"I must become an arahant." He made no progress. 


Mahākassapa came and told him that the conference would start the following day, if necessary without him. If he was not an arahant they would take someone else.  


Again he tried the whole night— "I must become an arahant." The night passed away and the sun rose. 


Exhausted from his work, he decided to rest. He didn’t cry, he had that good quality. Now he was not aiming to be an arahant. He just accepted the fact that he was not an arahant, he was only a sotāpanna. Like a good meditator, remaining aware of sensations arising and passing, he took rest. His mind was now no longer in the future, but in the reality of the present moment. 


Before his head reached the pillow, he became an arahant.    


It is a middle path. With too much laxity you achieve nothing. With over-exertion the mind is unbalanced. 


Ānanda joined the conference.


Now Ānanda was asked exactly what the Buddha had said, and all the teachings were compiled. 


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🌷Three divisions were made, called Tipitaka. 


Ti means three, pitaka commonly means basket, though it also refers to scriptures. 


1) Sutta-pitaka, the public discourses.


2) Vinaya-pitaka, the discourses to monks and nuns about discipline and sīla. 


For householders, five precepts, sīlas, are good enough, but for the monks and nuns there were over 200 sīlas, which is why the old monk dissented.


3) Abhidhamma-pitaka, higher Dhamma, deeper truths about the laws of nature not easily understood by an ordinary person. 


It is an analytical study of the entire field of mind and matter with full detail of the reality pertaining to matter (rūpa), mind (citta), and the mental factors, the mental concomitants, the mental contents (cetasika). It fully explains how they interact and influence each other, how matter and mind stimulate the arising of both themselves and each other, and the interconnections, currents, and cross-currents deep inside. 


This all becomes clear not just by reading Abhidhamma, but only by a deep practice of Vipassana. 


Ānanda was asked to recite the Suttas and Abhidhamma, and another arahant, perfect in the discipline, Upāli, was asked to recite the Vinaya.     


Ānanda starts Evamṃ me sutamṃ, "This was heard by me," because he had heard it directly from the Buddha. 


He also gives an explanation of the situation in which the Sutta was given. 


(Vipassana Research Institute - http://www.vridhamma.org/Printversion/Discourses-on-Satipatthana-Sutta)