Tuesday, January 26, 2016

आदिवासियों से सम्बंधित विषय राष्ट्रीय चर्चा का विषय क्यों नहीं?

आदिवासियों से सम्बंधित विषय
राष्ट्रीय चर्चा का विषय क्यों नहीं?
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आदिवासी श्री पृथ्वी राज मीणा को हुबली रेलवे प्रशासन ने आत्महत्या करने को विवश किया। इंस्पेक्टर श्रीराम मीणा के साथ भी यही हुआ। छतीसगढ़ की आदिवासी बहन-बेटियों और बहुओं के स्तन निचोड़े गए। उनका यौन उत्पीड़न किया गया। उनके साथ सार्वजनिक रूप से यौनहिंसा की गयी। काशी विश्वविद्यालय में पीएचडी स्कॉलर श्री पुखराज मीणा को वर्तमान में उत्पीड़ित किया जा रहा है! इस प्रकार कहीं न कहीं लगातार और हर पल आदिवासी स्त्री और पुरुषों के विरुद्ध हिंसा, उत्पीड़न, तिरस्कार, अमानवीय व्यवहार और विधिविरुद्ध घटनाएं जारी है। नक्सलवाद के बहाने आदिवासियों का सरकार द्वारा सरेआम नरसंहार किया जा रहा है। अनेक राज्यों में आदिवासी को दोयम ही नहीं अंतिम दर्जे का नागरिक समझा जाता है। आदिवासी को कदम-कदम पर गैर-आदिवासियों के अनेक प्रकार के ताने और उलाहने सहने पड़ते हैं।

सर्वाधिक दुःख की बात तो यह है कि लगातार हिंसा, भय और तनाव में जीने को विवश देश का आदिवासी आज देश में किसी की चिंता का विषय नहीं है। आदिवासी सरोकार सरकार, मीडिया या बुद्धिजीवियों के लिए चर्चा योग्य ही नहीं हैं। परम्परागत और सरकारी मीडिया औपचारिकता निभाने के लिए यदाकदा आदिवासी विषयों पर चर्चा के लिए बकवास (BAKVaS= B-ब्राह्मण+K-क्षत्रिय +Va-वैश्य+Sसंघी) वर्ग के लेखकों और कथित बुद्धीजीवियों या बकवास वर्ग के पिठ्ठू आदिवासियों का सहारा लेकर आदिवासियों सहित, देश के अन्य लोगों को आदिवासियों के हालातों, उनकी जरूरतों और उनके हकों के बारे में चर्चा के नाम पर गुमराह करता रहता है।

आदिवासियों के साथ आयेदिन घटित अमानवीय घटनाओं और अत्याचारों को उठाने के बजाय दबा दिया जाता है। इसके विपरीत दलित उत्पीड़न की घटनाएं लगातार राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा, बहस और चिंता का विषय बनती रहती हैं आखिर ऐसा क्यों? इस सवाल का जवाब तलाशना बहुत जरूरी है।

कुछ आदिवासी मित्रों का आरोप है कि दलित वर्ग के लोग हमारा साथ नहीं देते हैं। ओबीसी और मुसलमान भी आदिवासी के साथ में खड़ा नहीं होता है। इस कारण आदिवासियों को सपोर्ट नहीं मिल पाता। इस कारण आदिवासियों से जुड़े अति गंभीर मुद्दे भी दब जाते हैं। आदिवासियों के साथ घटित घटनाओं के दब जाने के पिउछे क्या यही अंतिम सत्य है और अन्य कोई कारण नहीं हैं, जिनके कारण आदिवासी अलग-थलग पड़ गया दिखता है?

इस प्रकार का निष्कर्ष निकालने के बजाय, सबसे पहले तो देश के हर एक आदिवासी को यह जानना बहुत जरूरी है कि क्या हम आदिवासी अपने स्तर पर एकजुट हैं? बेशक दलित वर्ग के अनेक संगठन हैं, जिनमें विचारधारा के स्तर पर तालमेल भी नहीं होता है, लेकिन दलितों पर जब भी अत्याचार होते हैं, देशभर के दलित एक मंच पर नजर आते हैं। इसके विपरीत हम आदिवासी एकजुट होना तो बहुत दूर आपस में संपर्क और स्वस्थ संवाद तक कायम नहीं रख पाते हैं। हम क्षेत्रों, जनजातियों और उपजातियों तथा गौत्रों जैसी  सीमाओं की मनोग्रंथियों से बाहर निकलकर सकारात्मक रूप से अपनी विकट और ज्वलन्त समस्याओं के बारे में सोचने की जरूरत तक अनुभव नहीं करते हैं!

यह सर्वकालिक सत्य है कि जो व्यक्ति या समाज खुद अपनी मदद नहीं करते, उनकी मदद कोई नहीं कर सकता। आदिवासी की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। आदिवासी जन प्रतिनिधि और प्रशासनिक प्रतिनिधियों तक को आदिवासियों की चिंता नहीं है! ऐसे में यह कहना कि दलित, ओबीसी और मुसलमान आदिवासी का सहयोग नहीं करते, असत्य और अनपेक्षित अपेक्षा के सिवा कुछ भी नहीं है।

क्या हम आदिवासी, मुसीबत के वक्त ओबीसी, दलितों और मुसलमानों की न्यायसंगत सहायता और सहयोग करते हैं? कड़वी वास्तविकता तो यह है कि अधिकतर क्षेत्रों में हम आदिवासी बकवास वर्ग के बहकावे में आकर खुद को हिन्दू धर्म रक्षक मान बैठते हैं और बकवास वर्ग द्वारा संचाकित संगठनों के कथित धार्मिक आह्वान पर दलितों और मुसलमानों के विरुद्ध बकवास वर्ग का साथ देते देखे जाते हैं। 2002 के गुजरात कत्लेआम के आंकड़े उठाकर देखने पर इस कड़वी सच्चाई से आसानी से पर्दा उठाया जा सकता है।

दलितों पर जब भी कोई अत्याचार या अन्याय होता है, उनके समर्थन में किसी भी आदिवासी जनप्रतिनिधि या राजनेता की आवाज सुनाई नहीं देती है। केवल इतना ही नहीं, आदिवासी नेता अपने ही वर्ग की दूसरी जनजातियों या दूसरे क्षेत्रों के आदिवासियों के पक्ष में तक खड़े नजर नहीं आते हैं। यही बड़ी वजह है कि देशभर में सभी जन जातियां अलग-थलग पड़कर लुटती-पिटती रहती हैं। अनेकों को अपने पूर्वजों की भूमि से विस्थापित किया जा चुका है और अभी भी मनमाने तरीके से किया जा रहा है। यह भी बड़ा कारण है कि आदिवासी के साथ कोई खड़ा नजर नहीं आता है।

ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है की इन हालातों को अपनी नीयति मानकर क्या आदिवासी को चुपचाप अन्याय और अत्याचार सहते रहना चाहिए या कुछ करना चाहिए? दूसरी ओर यह भी विचारणीय है कि अपने आप को भारत का मौलिक निवासी, भारत का मालिक और भारत का पुरातनवासी कहने, लिखने या सिद्ध करने की चेष्टा मात्र से आदिवासी की समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला!

मेरा स्पष्ट मानना है कि आदिवासी को वर्तमान लोकतन्त्र की संवैधानिक हकीकत को स्वीकारना होगा। लोकतन्त्र में जनबल की ताकत, मूल ताकत मानी जाती है और जनबल के आगे झुकना सत्ता की मजबूरी होती है।

1. मगर आदिवासी अभी तक किसी के भी साथ वैचारिक, सामाजिक और राजनैतिक तालमेल नहीं बिठा पाया है। जिसके लिए आदिवासी जनजातियों में आपसी तालमेल का अभाव मूल कारण माना जा सकता है। साथ ही इसके लिए हमारा स्वभावगत आदिवासी स्वाभिमान, अशिक्षा और अनेक बार खोखला अहंकार भी आड़े आता है।

2. दलितों की तुलना में हमारे प्रतिनिधि और अधिकारी भी वास्तव में अपने समाज के प्रति उतने निष्ठावान और प्रशिक्षित नहीं हैं, जितने कि दलितों के हैं।

3. हमारे लोगों में सामाजिक उत्तरदायित्व निर्वाह (पे-बैक टू सोसायटी) की भावना का प्राय: अभाव देखा जाता है। इस कारण हमारे समाज के कथित संगठनों की आर्थिक और बौद्धिक ताकत कमजोर देखी जाती है।

4. आदिम परम्पराओं के चलते हमारा समाज-धर्मभीरुता, अंधविश्वास, अंधश्रद्धा, शराब और अशिक्षा के कोढ़ से अभी भी मुक्त नहीं हो पाया है। बल्कि दिनोंदिन इनमें और उलझता जा रहा है।

5. हमारे आसपास अनेक डिग्रीधारी और उच्चपदस्थ आदिवासी तो मिल जाएंगे, लेकिन शिक्षित आदिवासियों के अभाव का संकट अभी भी गहराया हुआ है। जिसके चलते नेतृत्व का संकट विद्यमान है।

6. आदिवासियों में न्याय, समानता, भागीदारी, प्रतिनिधित्व, मौलिक अधिकार जैसे संवैधानिक विषयों पर चिंतन की गहरी खाई नजर आती है।

7. उच्च पदस्थ प्रशासनिक अफसर, प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर, बैंकर, प्रबंधक, निदेशक जैसे पदों पर पदस्थ आदिवासी भी बकवास वर्ग के जाल से मुक्त ही नहीं होना चाहते और आदिवासी हिंदुत्व द्वारा संचालित स्वर्ग के प्रलोभन तथा नर्क के भय के मनोवैज्ञानिक षड्यंत्र में बुरी तरह से उलझे हुए हैं।

8. सबसे दुखद और अत्यंत गंभीर बात तो यह है कि मनुवादी व्यवस्था के कारण विकृत और रुग्ण दिलोडिमांग के अनेक शातिर अफसर सेवानिवृति के बाद अपनी पूर्व पदस्थिति और धनबल के जरिये MP/MLA बनकर विधायिका में दस्तक दे रहे हैं। राजनैतिक दलों के लिए ऐसे आदिवासी सर्वोत्तम गुलाम सिद्ध हो रहे हैं।

इन हालातों में यदि आदिवासी को अपना वर्तमान सुधारना है और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को उज्ज्वल बनाना है, तो प्राथमिकता से-

1. उपरोक्त तथा अन्य जरूरी विषयों पर गम्भीरतापूर्वक चिंतन-मनन करना होगा।
2. आपसी क्षुद्र संघर्ष के बजाय परिणामदायी सकारात्मक सहयोग का रास्ता अपनाना होगा।
3. आदिवासियों को अपने मान-सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा करनी है, तो बकवास वर्ग के जाल से मुक्त होकर वंचित (MOST=Minority+OBC+SC+Tribals) वर्ग के लोगों के साथ जीवन्त और सहयोगात्मक सम्बन्ध स्थापित करने होंगे।
4. अपनी परम्परागत सामाजिक कुरूतियों और राजनैतिक निद्रा से जागकर, अपनी संवैधानिक भूमिका का निर्धारण करना होगा। और
5. सोशल मीडिया को सर्वोत्कृष्ट अवसर मानकर, इसके जरिये देशभर के आदिवासियों तथा अन्य वंचित वर्गों के साथ हर स्तर जुड़कर कार्य करना होगा।

अन्यथा हमें यह कहने का कोई अधिकार नहीं कि भारत के मूलवासी आदिवासियों से सम्बंधित विषय राष्ट्रीय चर्चा का विषय क्यों नहीं बनते?

लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोशिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक), पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ, दाम्पत्य विवाद सलाहकार तथा लेखन और पत्रकारिता के क्षेत्र में एकाधिक प्रतिष्ठित सम्मानों से विभूषित।-98750 66111/24.01.2016/20.36 PM.
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