बोधिवृक्ष की महत्वपूर्ण जानकारी
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** तथागत बुद्ध को इ.स.पुर्व 528 (वैशाख पुर्णिमा) में बोधगया में पिपल बोधिवृक्ष के निचे ज्ञागप्राप्ती हुईं और वे सम्यक संबुद्ध बने।
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मुल बोधिवृक्ष का पहला उत्तराधिकारी ------------------------------
तथागत बुद्ध श्रावस्ती छोड़कर दुसरी जगह न जए ऐसा श्रावस्ती के लोगों को लगता था। आखिरकार तथागत बुद्ध ने श्रावस्ती छोड़ने का संकल्प उन्हें (श्रावस्तीवासियों) को पता चला इसलिए वे बेहद दुःखी और बेचैन हुए। " तथागत की याद सदा के लिए श्रावस्ती में रहे इसलिए बोधगया के बोधिवृक्ष की एक टहनी श्रावस्ती में लाकर लगाई जाएँ।" ऐसी उन्होंने तथागत से बिनती की।
सभी लोगों की श्रद्धा को देखकर खुद तथागत बुद्ध ने बोधिवृक्ष की टहनी लाने के लिए आनंद को बोधगया भेजा। आनंद बोधगया जाकर वहाँ बोधिवृक्ष की विधिवत पुजा करके एक टहनी श्रावस्ती मे लाकर तथागत बुद्ध के आदेशानुसार उस टहनी को श्रावस्ती के जेतवन में विधिवत रूप से लगाया। आज इस वृक्ष को ' आनंद बोधिवृक्ष' कहाँ जाता हैं।
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मुल बोधिवृक्ष का दुसरा उत्तराधिकारी
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सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा इन्हें दिक्षा लेने के लिए कहकर उन्हें धम्म का प्रचारक बनाया। सम्राट अशोक ने संघमित्रा के साथ बहोत से भिक्खू और भिक्खुनिओ को बोधगया के मुल बोधिवृक्ष की एक टहनी देकर उसे धम्मप्रचार करने के लिए श्रीलंका भेजा। संघमित्रा ने श्रीलंका की राजधानी अनुराधापूर में बोधिवृक्ष की उस टहनी को लगाया।
***** आज श्रीलंका के बोधिवृक्ष की ही शाखाएँ (टहनी) वाराणसी, सांची, सारनाथ, दिल्ली और दिक्षाभूमी नागपूर में लगाई गईं हैं। साथ ही उसी बोधिवृक्ष की एक एक टहनी नई दिल्ली के बुद्ध जयंती पार्क और डाॅ.बाबासाहेब आंबेडकर भवन, दिल्ली के भारतीय बौद्ध महासभा के कार्यालय के प्रांगण में सन 1956 में लगाई थी।
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मुल बोधिवृक्ष पर पहला आघात
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सम्राट अशोक असीम श्रद्धा के साथ बोधगया के पावन बोधिवृक्ष के निचे बारबार जाकर वहाँ बहोत देर तक चिंतन और मनन करते थे। सम्राट अशोक की यह बात उनकी एक राणी तिष्यरक्षिता को पसंद नहीं थी। उसे लगता था की सम्राट अशोक बारबार बोधिवृक्ष के पास जाकर अपना अधिकाधिक समय वहाँ देते हैं इस वजह से उनका (सम्राट अशोक) ध्यान अपनी ओर नहीं लगता। तिष्यरक्षिता के मन सम्राट अशोक के बारबार बोधिवृक्ष के पास जाने से घृणा पैदा होती थी और वे इसका हरवक्त विरोध करती थी।
राजा का स्वभाव बदल रहा हैं और इसके लिए बोधिवृक्ष ही जिम्मेदार हैं ऐसा सोचकर एक दिन " बोधगया के बोधिवृक्ष को जड़ से तोड़ा जाए इससे राजा उस जगह पर बारबार नहीं जाएंगे, " ऐसा विचार तिष्यरक्षिता राणी के मन में आया।
राणी ने सम्राट अशोक को न बताते हुए बोधगया के बोधिवृक्ष को जड़ों से काटकर और उसके टहनीयों के टुकड़े करो ऐसा अपने विश्वासू सेवकों को आदेश दिया और द्वेष भावना से उसने सेवकों के हाथों से बोधगया के मुल बोधिवृक्ष को जड़ से तोड़कर उसकी टहनीयों के टुकड़े टुकड़े करके उसे नष्ट किया।
इसका सम्राट अशोक को पता चला तो वे बेहद दुःखी हुए।
सम्राट अशोक बोधगया जाकर उन्होंने बोधिवृक्ष के बुंधा (the trunk; stump) को मन की श्रद्धा त्रिवार वंदन किया और उसपर गाय का दूध, सुगंधित पाणी डालकर सुगंधित पुष्प, धुप, दीप के साथ मन से पूजा वंदना करके चिंतन किया। यह कार्य बहोत दिनों तक शुरू रहा। आखिरकार कुछ ही दिनों में प्रकृति के नियम के अनुसार बुंधे से (the trunk; stump) एक अंकुर आया (to sprout) और उससे ही एक बड़ा बोधिवृक्ष तयार हुआ।
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मुल बोधिवृक्ष पर दुसरा आघात
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पूर्व बंगाल (गौरप्रदेश) का राजा शशांक (इ.स. 606 से 637) यह बौध्द धम्म का कड़ा विरोधक था। उसने बोधगया पर हमला किया। तब उसने सबसे पहले बोधिवृक्ष पर हमला करके सैनिकों द्वारा बोधिवृक्ष की जमीन को खोदकर उसे जड़ से तोड़ा और उसकी टहनीयों के छोटेछोटे टुकड़े करके उसे और बोधिवृक्ष के पत्तों को जलाया साथ ही उस जगह पर वो वृक्ष दोबारा न निकले और वो जगह बंजर हो जाए इसलिए उसने उस खोदे हुए गड्डे में गन्ने का रस डालकर उसे जलाया था।
शशांक के हमलों का समाचार सुनकर अशोक के वंश का मगध का आखिरी राजा पूर्णवर्मा बहोत दुःखी हुए। पूर्णवर्मा ने बोधिवृक्ष के बुंधे (the trunk; stump) पर सम्राट अशोक जैसी कृती करके श्रद्धा से पुजा की। पहले जैसे ही बुंधे (the trunk; stump) के जड़ों से एक अंकुर (to sprout) उपर आया और पुनः वहाँ बड़ा बोधिवृक्ष तयार हुआ।
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मुल बोधिवृक्ष पर तिसरा आघात
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भारत में अंग्रेजो का शासन था। तब सन 1880 में महाबोधि विहार के परिसर का उत्खनन (खुदाई) कार्य अंग्रेज पुरातत्व विभाग का व्यक्ति जनरल कनिंगहॅम इन्होंने चारों बाजू से बहोत गहराई तक किया। इस वजह से बोधिवृक्ष के अगलबगल के जमीन के चारों ओर का आधार बहोत कम हुआ। उसवक्त एक बड़ा तुफान आया था और उसी तुफान से वो महान, विशाल बोधिवृक्ष जमीन पर गिर पड़ा।
इस घटना का पुरे विश्व के बौद्धों को बहोत दुःख हुआ। उसवक्त सभी बौद्ध राष्ट्रों के प्रतिनिधि बोधगया आएं। उन्होंने अंग्रेज सरकार और कॅनिंगहॅम की कड़ी आलोचना की। बोधिवृक्ष के पतन से तथागत बुद्ध का स्मृति प्रतिक नष्ट न हो इसलिए सभी राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने एकमत से सोचकर श्रीलंका के मुल बोधिवृक्ष की एक टहनी लाकर उसे विधिवत तरीके से मुल बोधिवृक्ष की जगह पर उसे पुनः लगाया गया।
आगे कुछ सालों बाद वह टहनी बड़ी होकर उसका बड़ा विशाल बोधिवृक्ष तयार हुआ। आज बोधगया में जो बोधिवृक्ष हैं वो श्रीलंका के मुल बोधिवृक्ष (बोधगया के मुल बोधिवृक्ष का उत्तराधिकारी) की एक टहनी से ही बड़ा हुआ बोधिवृक्ष हैं।
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संदर्भ :-
तथागत आणि बौद्ध स्थळांचा इतिहास
लेखक :- पी.जी.रायबोले 'शीलवंश'
हिन्दी अनुवाद:- अमित इंदूरकर
(इस महत्वपूर्ण जानकारी का हिन्दी अनुवाद करते समय कुछ त्रुटियाँ भी हो सकती हैं इसलिए हमे माफ करना)
✒अमित इंदूरकर
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