बुद्ध की मूर्ति को लेकर डा . अम्बेड़कर और भन्ते आनंद
कौशल्यायन जी के बीच हुए वार्तालाप का एक महत्वपूर्ण वाकिया --
भन्ते आनंद कौसल्यायन जीने
अपनी किताब में दिया है । वह वाकिया ऐसा है कि,
एक बार भन्ते आनंद कौशल्यायन जी बाबासाहब
डा . अम्बेड़कर को दादर ( मुंबई ) में एक कार्यक्रम में लेकर
गये ।
…………… दोनों के बीच धर्म के विषय पर चर्चा चल रही
थी कि तभी बाबासाहब ने भन्ते आनंद कौशल्यायन
जी से एक सवाल किया कि, 'भन्ते ! आपको बुद्ध की
कौन-सी मूर्ति पसंद है ?'
………… तब भन्ते आनंद कौशल्यायन जी ने बड़े ही श्रद्धाभाव
से जवाब दिया कि
^^ 'ध्यान साधना में लीन बुद्ध की मूर्ति मुझे अधिक पसंद है ।' ^^^
………… तब डा . अम्बेड़कर जी ने भन्ते जी से अपने दिल की बात बताते हुए कहा कि,
'भन्ते ! मुझे
ध्यान साधना में लीन बुद्ध की मूर्ति बिल्कुल पसंद
नहीं है ।
_____ मैं उस बुद्ध की मूर्ति को अधिक पसंद करता
हूँ जो हाथ में भिक्षापात्र लेकर चारिका कर रहे हैं'
और इसके पीछे के कारण को स्पष्ट करते हुए
डा.अम्बेडकर ने भन्ते जी को तथागत बुद्ध का वह
महत्वपूर्ण संदेश याद दिलाया जिसमें
बुद्ध अपने पहले
प्रवचन में पंचवग्गीय भिक्खुओं से कहते हैं कि -- ^^^^^-- 'चरथं भिक्खव्वे चारिकं, बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय ।
लोकानु कंपाय, अत्तानु हिताय, आदि कल्याण,
मध्य कल्याण, अंत कल्याण' ^^^^
अर्थात, जो बहुजनों के
कल्याण के लिए, बहुजनों के सुख के लिए तथा
बहुजनों का प्रारंभ कल्याणकारी हो, मध्ये
कल्याणकारी हो और अंत भी कल्याणकारी हो
इसके लिए प्रतिदिन चारिका करता है, प्रतिदिन
मार्गदर्शन करता है, ऐसा प्रतिदिन भ्रमण करनेवाला
प्रचारक बुद्ध मुझे अधिक पसंद है ।
इस उदाहरण से हमें यह ध्यान में आएगा कि
बाबासाहब डा. अम्बेडकर कोई भी बात श्रद्धावान
उपासक बनकर स्वीकार नहीं करते थे, बल्कि उसकी
छानबीन कर योजनाबद्ध तरिके से अपनाते थे । जो
विचार स्वीकार करने योग्य है,
जो विचार कालसंगत है वह विचार बाबासाहब ने स्वीकार किया । साथ ही जो कालबाह्य विचार उसे कदापि स्वीकार नहीं किया । हमेशा उस विचार पर असहमति जताई । बाबासाहब डा.अम्बेडकर जी ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि तथागत गौतम बुध्द को भी यही सिध्दान्त मान्य था ।
------ मा. वामन मेश्राम ( राष्ट्रीय अध्यक्ष, बामसेफ तथा भारत मुक्ती मोर्चा )
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