धम्म चक्र प्रवर्तन और आजादी
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१४ ऑक्टोबर १९५६ को बाबासाहब डॉ.भीमराव अंबेडकर द्वारा की गई धम्मक्रांती व धम्मचक्र प्रवर्तन दिन की यादे..
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२४ मई १९५६ को बाबासाहब डॉ. आंबेडकर मुंबई
आए और उन्होंने नरेपार्क, मुंबई में बुद्ध जयंती केअवसर पर यह घोषणा की की, "वह अक्तूबर 1956
में बौद्ध धर्म ग्रहण करेंगे. उन्होंने यह भी घोषणा की थी, की वह शीघ्र ही एक शानदार बौद्ध विहार का निर्माण करेंगे.. अन शब्दों के साथ
उनका बम्बई में अंतिम भाषण समाप्त हुआ." १४अक्तूबर १९५६ का दिन जो डॉ. आंबेडकर ने
बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के लिए चुना था,निकट पहुंच रहा था, अगस्त के प्रथम सप्ताह मेंउन्होंने अपने एक श्रद्धालू के पास अपनी यह
इच्छा प्रकट की थी की वह बम्बई,सारनाथ या नागपूर में दीक्षा लेना चाहते है. उनकी पहली
प्राथमिकता नागपूर शहर की थी, क्योंकि नागपुर बौद्ध-नागाओं का पुरातन काल का एक ऐतिहासिक शहर था. वह इस ऐतिहासिक शहर
से बौद्ध धर्म का चक्र चलाना आरम्भ करना चाहते थे.बाबासाहब ने थोड़े समय पहले ही भारतीय बुद्ध जनसमिती नाम की एक संस्था बनाई थी,इसी के नागपुर शाखा के सचिव थे वामन गोडबोले. बाबासाहब ने गोडबोलेजी को दिल्ली बुलाया. और उन्हें नागपूर के तैयारी के
बारे में अवगत कराया. समिती की ओर से दलित वर्गों के लोगों को इश्तिहारों द्वारा अपीलकी गई थी की वे अधिक से अधिक संख्या में
श्वेत वस्त्र धारण करके नागपूर में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के लिए पहुंचे. २३ सितम्बर १९५६ को
डॉ. आंबेडकर ने एक प्रेस वक्तव्य जारी किया,जिसमें उन्होंने घोषणा की थी कि, वे १४अक्तूबर १९५६ को ९ से ११ बजे प्रातः नागपूर शहर में दीक्षा लेंगे. डॉ. आंबेडकर ने भारत में
सबसे वृद्ध बौद्ध भिक्षु चंद्रमणि जो उस समय उत्तर प्रदेश के जिला गोरखपुर में कुशीनारा में
रहते थे, उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की.भिक्षू चंद्रमणि को लिखे एक पत्र में बाबासाहब ने कहा था की, "हमारी यह बहुत बड़ी इच्छा है कि आप ही हमें दीक्षा दो,
क्योंकि आप ही भारत में सब से वृद्ध भिक्षु हो." उन्होंने यह भी लिखा कि उन्हें (भिक्षु चंद्रमणि को) कुशीनारा से नागपूर आने जाने का हवाई जहाज का किराया आदि दिया
जाएगा और वे अपने किसी व्यक्ति को उन्हें नागपुर लाने के लिए भी भेज देंगे.डॉ. आंबेडकर ने ११ अक्तूबर के लिए अपने, अपनी पत्नी और नानकचन्द रत्तू के लिए हवाई जहाज
की सीटे आरक्षित करवा ली. उन्होंने
महाबोधी सोसायटी ऑफ इंडिया कलकत्ता के महामंत्री श्री देवप्रिय बालीसिन्हा को भी लिखा था कि, वह १४ अक्तूबर १९५६ को
नागपूर पहुंचने की कृपा करे. डॉ. बाबासाहब आंबेडकर अपनी पत्नी तथा नानकचंद रत्तू सहित
हवाई जहाज द्वारा दिल्ली से चलकर 11अक्टूबर को दोपहर को नागपुर पहुंच गये. उनके ठहराने का प्रबंध नागपुर के शाम होटल में किया
गया. लाखों लोग अपने मुक्तिदाता के दर्शन करने के लिए उतावले थे. नागपुर शहर में इतनी भीड हो गई की शाम होटल से उत्तर अंबाझरी
रोड तक जाने वाले सभी मार्ग खचाखच भर गये.लाखो लोगों ने बाबासाहब की चरणधुली
अपने मस्तकों पर लगाकर अपने मन को संतुष्ट किया.लाखों लोग जैसे भी वे पहुंच सकते थे, धुमधाम से
नागपुर पहुंचे. नागपुर को आने वाली गाड़ियों में रिकार्ड तोड़ भीड थी. नागपुर पहुंचने के लिए कई लोगों ने अपने जेवरात तक बेच दिये. . हजारो
लोग ऐसे भी थे जिनके पास रेल किराये तक पैसे नहीं थे, फिर भी वे कई किलोमीटर की पदयात्रा करते हुए, "आकाश पाताल एक करो,
बुद्ध धम्म का स्वीकार करो", "भगवान बुद्ध की
जय, बाबसाहब की जय" के नारे लगाते हुए दीक्षा-स्थळ (दीक्षाभूमी) पर पहुंच रहे थे. लोग इस प्रकार जत्थे बना-बनाकर आ रहे थे. वे इस
प्रकार झुमते गाते, उछलते-कुदते यात्रा कर रहे थे..जिस प्रकार वे जीवन की कोई अति प्रसन्न और
महत्त्वपूर्ण यात्रा कर रहे हो. वे प्रसन्न भी क्यों न होते, यह दिन उनकी धार्मिक, सामाजिक, राजकिय गुलामी के अंत का दिन था और उनके मुक्ति-दिवस का महान पर्व.यात्रियों के ठरहने के लिए स्कूलों में प्रबन्ध
किया गया था. सेवादारों की कई टुकड़ियां लोगों के रहन-सहन के लिए नेतृत्व कर रही थी, कुछ एक ने होटलों में भोजन किया. बहुतों ने खुले मैदान में अपना भोजन पकाया. समुचे वातावरण पर शांत बौद्ध पवित्रता की छाप स्पष्ट नजर
आती थी. नागपूर जो महान और प्रसिद्ध विद्वान नागार्जुन का पवित्र स्थान रहा था.१४ अक्तूबर को एक महान ऐतिहासिक सांस्कृतिक तथा धार्मिक केन्द्र बन गया था,
जैसे जैसे बुद्ध धर्म अपनाने के मतवालों के जत्थे दीक्षा-स्थल की ओर बढ़ रहे थे, वैसे वैसे लोगों
का जोश बढ़ता जा रहा था.. नारे लग रहे थे.."आकाश पाताल एक करो, बुद्ध धर्म को ग्रहण करो".नागपूर में श्रद्धानंद पेठ, लक्ष्मीनगर के निकट १४ एक़ड़ के क्षेत्र में एक विशाल पण्डाल, जिसे दुल्हन की भांति सजाया गया था, निर्माण किया गया था. इसके उत्तरी सिरे की ओर
सांची स्तूप जैसा एक शानदार द्वार था, जिस का मुंह पण्डाल के दोनो ओर को बनाया गया था. पुरुषों और महिलाओं के बैठने के लिए पृथक
पृथक स्थान थे. बौद्धध्वज हजारों की संख्या में पण्डाल में लहरा रहे थे. दीक्षा-स्थल की ओर आने वाले सभी मार्गों को बहुत चावों से सजाया गया था. नागपूर ऐसा लग रहा था, जैसे
वह भारत का बुद्ध जीवन-काल का कोई महान बौद्ध शहर हो.
१३ अक्तूबर की सायं. को डॉ. आंबडेकर ने प्रेस कानफ्रेंस की. इस में उन्होंने पत्रकारों को बताया कि, उनका बौद्ध धर्म वैसे ही होगा
जिसका बुद्ध ने स्वयं प्रचार किया और जो सिद्धान्त उन्होंने बताये. हम हीनयान या महायान के पृथकतायों में नहीं फैलेंगे अपितु बुद्ध यान अर्थात बुद्ध की ओर से दिये धम्म
पर ही चलेंगे. जब संवाददाताओं ने डॉ. आंबेडकर से पुछा की आप बौद्ध-धमम् क्यों अपना रहे हो.
तो उन्होंने आवेशपूर्ण शब्दों में कहा - "आप यह प्रश्न अपने आप से और अपने पूर्वजों से क्यों नहीं पुछते कि मैं हिन्दू-धर्म को त्याग रहा हू तथा बौद्ध धर्म को क्यूं स्वीकार कर रहा
हू." उन्होंने संवाददाताओं से पुछा कि वे यह क्यों चाहते है कि कुछ आरक्षित आरजनितिक अधिकारों के लिए उनके अनुयायी अछूत बने रहे..
उन्होंने पुछा कि, "क्या ब्राम्हण कुछ
विशेषताओं के लिए अछूत बनने को तैयार है?"उन्होंने यह कहा कि, "वह बौद्ध धर्म को इस लिए स्वीकार रहे है कि यह भारतीय सभ्यता
का ही अंग है." मैने इस बात का भी ध्यान रखा है कि, "मेरे धर्म-परिवर्तन से भारत भूमि के इतिहास और सांस्कृतिक परम्पराओं को
कोई हानि न पहुंचे.."उन्होंने यह भविष्यवाणी भी की थी की बौद्ध
धम्म की लहर सारे देश में फैलेंगी. एक न एक दिन भारत एक बौद्ध देश बनकर रहेगा. ब्राम्हण सबसे
बाद में बुद्ध धम्म स्वीकार करेंगे, चलो उन्हें सबसे अन्त में ही बौद्ध धम्म स्वीकार करने दो.उन्होंने यह भी घोषणा की थी की वे अपने
अनुयायियों की शिक्षा के लिए उस में बौद्ध धम्म का प्रचार करेंगे और उन्हें सही अर्थों में बौद्ध-धम्म-जीवन बिताने की प्रेरणा देंगे. १४अक्तूबर को डॉ. आंबेडकर प्रातः ही जागे.
उन्होंने नानकचन्द रत्तू को गर्म पानी के स्नान का प्रबंध करने के लिए कहा और इस बात का विश्वास करने के लिए कहा कि क्या पण्डाल में
सभी प्रबंधन ठीक ठाक है. रत्तू पूछ पड़ताल करने के बाद लौट आये.
श्वेत सिल्की धोती और श्वेत बुराक सा कोट पहनकर डॉ. आंबडेकर, नानकचंद रत्तू और अपनी
पत्नी के साथ प्रातः साढे आठ बजे कार में शाम होटल से रवाना हुए. जैसे ही डॉ. आंबेडकर शाम होटल से बाहर आये तो लोगों ने सभी
प्रबंध अस्तव्यस्त कर दिये. डॉ. आंबेडकर को बड़ी कठिनाई से पंडाल तक पहुंचाया गया.
जैसे ही बाबासाहब रत्तू के कन्धों पर हाथ रखकर पण्डाल में पहुंचे पण्डाल "बाबासाहब की जय, बुद्ध धर्म की जय" के नारों से गुंज उठा.
सवा नौ बजे का समय हो चुका था.
फोटोग्राफरों ने धड़ाधड़ फोटो खींचे और संवाददाता रिपोर्ट लिखने के लिए सावधान हो गये. मंच पर दो शेरों के मध्य बुद्ध की आंख
खुली हुई मुर्ति विराजमान थी. अगरबत्तियां जल रही थी. श्री डी. बालीसिन्हा, भिक्षु एम. संघरत्न, भिक्षु सिद्धातिस्स थेरो और भिक्षु पन्नान्द मंच पर सुशोभित थे.समारोह एक मराठी गीत से आरंभ हुआ, जो एक
महिला ने बाबासाहब की प्रशंसा में गाया था. सभी श्रोता डॉ. आंबेडकर के पिताजी (रामजी सपकाळ (आंबेडकर) ) की स्मृति में
सन्मानार्थ खड़े हो गए और उन्होंने एक मिनिट मौन धारण किया. इसके अंतर समारोह को वास्तविक कार्यवाही आरम्भ हुई. लगभग ७
लाख लोगों ने भिक्षु चन्द्रमणि और उनके अन्य चार साथी भिक्षुओं से बाबासाहब ने बुद्ध धर्म
की दीक्षा ली. उन्होंने पालीमन्त्र मराठी भाषा में उच्चारित किये थे. इसके साथ ही समारोह की फिल्म भी बनाई गई थी.समारोह का कार्य लगभग आधे घन्टे तक चला.
डॉ. आंबेडकर के बौद्ध धम्म के ग्रहण करने के पश्चात लोगों ने उन्हें फुलों के हारों से लाद दिया. १५ अक्तूबर 1956 को बाबासाहब ने
अपने लगभग सात लाख अनुयायियों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी. डॉ. आबेडकर ने दीक्षा
लेने वालों को २२ प्रतिज्ञाएं भी दिलाई.और इस तरह से हमारे परमपूज्य महामानव बोधिसत्व बाबासाहब डॉ भीमराव अंबेडकर जी ने हमे धम्मचक्र प्रवर्तन द्वारा गुलामी से आजादी का सूत्रधार हमेसा हमेसा के लिए खुद बना दिया..........
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