Monday, February 8, 2016

माता रमाई का जन्म महाराष्ट्र के दापोली के निकट वानाड गावं में ७ फरवरी 1898 में हुआ

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 माता रमाई का जन्म महाराष्ट्र के दापोली के निकट
वानाड गावं में ७ फरवरी 1898 में हुआ था. पिता
का नाम भीकू वालंगकर था. रमाई के बचपन का नाम
रामी था. रामी के माता-पिता का देहांत बचपन में ही
हो गया था. रामी की दो बहने और एक भाई था.
भाई का नाम शंकर था. बचपन में ही माता-पिता की
मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उसके भाई-बहन
अपने मामा और चाचा के साथ मुंबई में रहने लगे थे.
रामी का विवाह 9 वर्ष की उम्र में सुभेदार रामजी
सकपाल के सुपुत्र भीमराव आंबेडकर से सन 1906
में हुआ था. भीमराव की उम्र उस समय 14 वर्ष
थी. तब, वह 5 वी कक्षा में पढ़ रहे थे.शादी के
बाद रामी का नाम रमाबाई हो गया था.  भले ही डॉ.
बाबासाहब आंबेडकर को पर्याप्त अच्छा वेतन
मिलता था परंतु फिर भी वह कठीण संकोच के साथ
व्यय किया करते थे. वहर परेल (मुंबई) में
इम्प्रूवमेन्ट ट्रस्ट की चाल में एक मजदूर-मुहल्ले में,
दो कमरो में, जो एक दुसरे के सामने थे रहते थे. वह
वेतन का एक निश्चित भाग घर के खर्चे के लिए
अपनी पत्नी रमाई को देते थे. माता रमाई जो एक
कर्तव्यपरायण, स्वाभिमानी, गंभीर और बुद्धिजीवी
महिला थी, घर की बहुत ही सुनियोजित ढंग से
देखभाल करती थी. माता रमाईने प्रत्येक कठिनाई का
सामना किया. उसने निर्धनता और अभावग्रस्त दिन
भी बहुत साहस के साथ व्यत्तित किये. माता रमाई
ने कठिनाईयां और संकट हंसते हंसते सहन किये.
परंतु जीवन संघर्ष में साहस कभी नहीं हारा. माता
रमाई अपने परिवार के अतिरिक्त अपने जेठ के
परिवार की भी देखभाल किया करती थी. रमाताई
संतोष,सहयोग और सहनशीलता की मूर्ति थी.डा.
आंबेडकर प्राय: घर से बाहर रहते थे.वे जो कुछ
कमाते थे,उसे वे रमा को सौप देते और जब
आवश्यकता होती, उतना मांग लेते थे.रमाताई घर
खर्च चलाने में बहुत ही किफ़ायत बरतती और कुछ
पैसा जमा भी करती थी. क्योंकि, उसे मालूम था कि
डा. आंबेडकर को उच्च शिक्षा के लिए पैसे की
जरुरत होगी. रमाताई सदाचारी और धार्मिक प्रवृति
की गृहणी थी. उसे पंढरपुर जाने की बहुत इच्छा
रही.महाराष्ट्र के पंढरपुर में विठ्ठल-रुक्मनी का
प्रसिध्द मंदिर है.मगर,तब,हिन्दू-मंदिरों में अछूतों के
प्रवेश की मनाही थी.आंबेडकर, रमा को समझाते थे
कि ऐसे मन्दिरों में जाने से उनका उध्दार नहीं हो
सकता जहाँ, उन्हें अन्दर जाने की मनाही हो. कभी-
कभार माता रमाई धार्मिक रीतीयों को संपन्न करने
पर हठ कर बैठती थी, जैसे कि आज भी बहुत सी
महिलाए धार्मिक मामलों के संबंध में बड़ा कठौर
रवैया अपना लेती है. उनके लिये कोई चांद पर
पहुंचता है तो भले ही पहुंचे, परंतु उन्होंने उसी सदियों
पुरानी लकीरों को ही पीटते जाना है. भारत में महिलाएं
मानसिक दासता की श्रृंखलाओं में जकडी हुई है.
पुरोहितवाद-बादरी, मौलाना, ब्राम्हण इन श्रृंखलाओं
को टूटने ही नहीं देना चाहते क्योंकि उनका हलवा
माण्डा तभी गर्म रह सकता है यदि महिलाए अनपढ
और रुढ़िवाद से ग्रस्त रहे. पुरोहितवाद की शृंखलाओं
को छिन्न भिन्न करने वाले बाबासाहब डॉ. आंबेडकर
ने पुरोहितवाद का अस्तित्त्व मिटाने के लिए आगे
चलकर बहुत ही मौलिक काम किया.
बाबासाहब डॉ. आंबेडकर जब अमेरिका में थे, उस
समय रमाबाई ने बहुत कठिण दिन व्यतीत किये.
पति विदेश में हो और खर्च भी सीमित हों, ऐसी
स्थिती में कठिनाईयां पेश आनी एक साधारण सी बात
थी. रमाबाई ने यह कठिण समय भी बिना किसी
शिकवा-शिकायत के बड़ी वीरता से हंसते हंसते काट
लिया. बाबासाहब प्रेम से रमाबाई को "रमो" कहकर
पुकारा करते थे. दिसंबर १९४० में डाक्टर बाबासाहब
बडेकर ने जो पुस्तक "थॉट्स ऑफ पाकिस्तान" लिखी
व पुस्तक उन्होंने अपनी पत्नी "रमो" को ही भेंट की.
भेंट के शब्द इस प्रकार थे. ( मै यह पुस्तक) "रमो
को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति,
सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में,
अभाव व परेशानी के दिनों में जब कि हमारा कोई
सहायक न था, अतीव सहनशीलता और सहमति
दिखाने की प्रशंसा स्वरुप भेंट करता हूं.."उपरोक्त
शब्दों से स्पष्ट है कि माता रमाई ने बाबासाहब डॉ.
आंबेडकर का किस प्रकार संकटों के दिनों में साथ
दिया और बाबासाहब के दिल में उनके लिए कितना
सत्कार और प्रेम था.
बाबासाहब डॉ. आंबडेकर जब अमेरिका गए तो माता
रमाई गर्भवती थी. उसने एक लड़के (रमेश) को जन्म
दिया. परंतु वह बाल्यावस्था में ही चल बसा.
बाबासाहब के लौटने के बाद एक अन्य लड़का गंगाधर
उत्पन्न हुआ.. परंतु उसका भी बाल्यकाल में
देहावसान हो गया. उनका इकलौता बेटा (यशवंत) ही
था. परंतु उसका भी स्वास्थ्य खराब रहता था.
माता रमाई यशवंत की बीमारी के कारण पर्याप्त
चिंतातूर रहती थी, परंतु फिर भी वह इस बात का
पुरा विचार रखती थी, कि बाबासाहब डॉ. आंबेडकर
के कामों में कोई विघ्न न आए औरउनकी पढ़ाई खराब
न हो. माता रमाई अपने पति के प्रयत्न से कुछ
लिखना पढ़ना भी सीख गई थी. साधारणतः महापुरुषों
के जीवन में यह एक सुखद बात होती रही है कि उन्हें
जीवन साथी बहुत ही साधारण और अच्छे मिलते रहे.
बाबासाहब भी ऐसे ही भाग्यसाली महापुरुषों में से एक
थे, जिन्हें रमाबाई जैसी बहुत ही नेक और
आज्ञाकारी जीवन साथी मिली.
इस मध्य बाबासाहब आंबेडकर के सबसे छोटे बच्चे
ने जन्म लिया. उसका नाम राजरत्न रखा गया. वह
अपने इस पुत्र से बहुत लाड-प्यार करते थे.
राजरत्न के पहले माता रमाई ने एक कन्या को जन्म
दिया, जो बाल्य काल में ही चल बसी थी. मात रमाई
का स्वास्थ्य खराब रहने लगा. इसलिए उन्हें दोनों
लड़कों यशव्त और राजरत्न सहीत वायु परिवर्तन के
लिए धारवाड भेज दिया गया. बाबासाहब की ओर से
अपने मित्र श्री दत्तोबा पवार को १६ अगस्त १९२६
को लिए एक पत्र से पता लगता है कि राजरत्न भी
शीघ्र ही चल बसा. श्री दत्तोबा पवार को लिखा
पत्र बहुत दर्द भरा है. उसमें एक पिता का अपनी
संतान के वियोग का दुःख स्पष्ट दिखाई देता है.
पत्र में डाक्टर बाबासाहब आँबेडकर लिखते है -
"हम चार सुन्दर रुपवान और शुभ बच्चे दफन कर
चुके हैं. इन में से तीन पुत्र थे और एक पुत्री. यदि
वे जीवित रहते तो भविष्य उन का होता. उन की
मृत्यू का विचार करके हृदय बैठ जाता है. हम बस
अब जीवन ही व्यतित कर रहे है. जिस प्रकार सिर
से बादल निकल जाता है, उसी प्रकार हमारे दिन
झटपट बीतते जा रहे हैं. बच्चों के निधन से हमारे
जीवन का आनंद ही जाता रहा और जिस प्रकार
बाईबल में लिखा है, "तुम धरती का आनंद हो. यदि
वह धरती कोत्याग जाय तो फिर धरती आनंदपूर्ण
कैसे रहेगी?" मैं अपने परिक्त जीवन में बार-बार
अनुभव करता हूं. पुत्र की मृत्यू से मेरा जीवन बस
ऐसे ही रह गया है, जैसे तृणकांटों से भरा हुआ कोई
उपपन. बस अब मेरा मन इतना भर आया है की और
अधिक नहीं लिख सकता..."
बाबासाहब का पारिवारिक जीवन उत्तरोत्तर
दुःखपूर्ण होता जा रहा था. उनकी पत्नी रमाबाई
प्रायः बीमार रहती थी. वायु-परिवर्तन के लिए वह
उसे धारवाड भी ले गये. परंतु कोई अन्तर न पड़ा.
बाबासाहब के तीन पुत्र और एक पुत्री देह त्याग
चुके थे. बाबासाहब बहुत उदास रहते थे. २७ मई
१९३५ को तो उन पर शोक और दुःख का पर्वत ही
टुट पड़ा. उस दिन नृशंस मृत्यु ने उन से उन की पत्नी
रमाबाई को छीन लिया. दस हजार से अधिक लोग
रमाबाई की अर्थी के साथ गए. डॉ. बाबासाहब
आंबेडकर की उस समय की मानसिक अवस्था
अवर्णनीय थी. बाबासाहब का अपनी पत्नी के साथ
अगाध प्रेम था. बाबसाहब को विश्वविख्यात
महापुरुष बनाने में रमाबाई का ही साथ था. रमाबाई
ने अतीव निर्धनता में भी बड़े संतोष और धैर्य से
घर का निर्वाह किया और प्रत्येक कठिणाई के समय
बाबासाहब का साहस बढ़ाया. उन्हें रमाबाई के निधन
का इतना धक्का पहुंचा कि उन्होंने अपने बाल मुंडवा
लिये, उन्होंने भगवे वस्त्र धारण कर लिये और वह
गृह त्याग के लिए साधुओं का सा व्यवहार अपनाने
लगे थे. वह बहुत उदास, दुःखी और परेशान रहते थे.
वह जीवन साथी जो गरीबी और दुःखों के समय में
उनके साथ मिलकर संकटों से जूझता रहा था और अब
जब की कुछ सुख पाने का समय आया तो वह सदा
के लिए बिछुड़ गया.


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