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BBC published an article written by Prof Vivek Kumar about BAMCEF and its 32nd National Convention held in Ringnabodi Nagpur at its own land ........
कहां बामसेफ के संस्थापक सदस्य कांशी राम के पास एक समय अपनी साइकिल में हवा भरवाने के लिए पांच पैसे नहीं थे.
संस्था को स्थापित करने के क्रम में वह ट्रेन के अनारक्षित डिब्बो में सफ़र करते थे, थैले में चप्पलों का तकिया बना के भूखे पेट सोना पड़ा था उन्हें कई बार. और बहुजन समाज को संगठित करने के लिए हज़ारों किलोमीटर पैदल और साइकिल पर गली-गली की खाक़ छाननी पड़ी थी.
उसी बामसेफ- बैकवर्ड एंड माइनॉरिटीज़ एमप्लाइज़ कम्यूनिटीज़ फेडरेशन– ने नागपुर में दिसंबर के आख़िरी सप्ताह (25 से 29 दिसंबर) में अपना 32वां सम्मेलन आयोजित किया.
खार्पडे ने बामसेफ आंदोलन को 'बहुजन' पहचान के साथ-साथ 'मूल निवासियों' से भी जोड़ने की कोशिश की.
मूल निवासी संकल्पना यह बताती है की, 'मनुवादी ही आर्य-आक्रान्ता है जिन्होंने यहां के 'मूलनिवासियों' को छल से सत्ता-संसाधन से वंचित कर दिया है. उनके आगमन से पहले 'मूल निवासी' इस भारतभूमि के स्वामी हुआ करते थे'.
अत: अगर मूलनिवासी समाज को न्याय दिलाना है तो तो फुले-अंबेडकरी विचारधारा के आधार पर मनुवादी सामाजिक संरचना का विखंडन करना होगा.
आज संस्था अपने विचारों के विस्तार के लिए पांच भाषाओं- हिंदी, अंग्रेज़ी, मराठी, पंजाबी एवं गुजराती भाषा में समाचार पत्र निकालती है. संस्था का अपना प्रकाशन विभाग भी है.28 एकड़ में फैला 'राष्ट्रीयता ज्योतिबा फूले सामाजिक क्रांति' परिसर, बामसेफ की अपनी संपत्ति है.
इस परिसर को संगठन के लोग कार्यकर्ता एवं नेतृत्व के त्याग की निशानी के तौर पर भी देखते हैं. परिसर के निर्माण के लिए अनेक सदस्यों ने अपनी तनख़्वाह दान में दी तो कुछ ने क़र्ज़ तक लिया.
लोगों का मानना है कि हालांकि पिछले 37 वर्षों में इसके सांगठनिक ढांचे में कई बदलाव हुए हैं फिर भी आज देश में यही एकमात्र ग़ैर राजनीतिक, ग़ैर अन्शनात्मक एवं ग़ैर धार्मिक संगठन है जो 1978 में अपनी औपचारिक स्थापना के बाद से लगातार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ी जातियों तथा धर्मान्तरित अल्पसंख्यक समाजों के सरकारी कर्मचारियों को संगठित करने में लगा हुआ है.संस्था में कई लोग 'संरचनात्मक राष्ट्रवाद' की झलक देखते हैं.
जीवन के 70 से ज़्यादा वसंत देख चुके कार्यकर्ता बड़े उत्साह से बताते हैं कि कैसे कांशी राम– जो संस्था के संस्थापकों में से एक थे– कैडर कैंपों और जनसभाओं में भारतीय समाज को पेन की तरह मानते थे. ढक्कन वाले पेन की उपमा दे कर वह बताते थे कि पेन का ढक्कन 15 प्रतिशत मनुवादियों को इंगित करता है जिन्होंने 85 प्रतिशत बहुजनों को धन, धरती, सत्ता आदि से वंचित कर दिया है.
वह कहते थे कि मनुस्मृति के आधार पर श्रेणीबद्ध असमान सामाजिक व्यवस्था तैयार की गई जिससे बहुजन समाज को छह हज़ार जातियों में विखंडित कर दिया गया.खार्पडे ने बामसेफ आंदोलन को 'बहुजन' पहचान के साथ-साथ 'मूल निवासियों' से भी जोड़ने की कोशिश की.
मूल निवासी संकल्पना यह बताती है की, 'मनुवादी ही आर्य-आक्रान्ता है जिन्होंने यहां के 'मूलनिवासियों' को छल से सत्ता-संसाधन से वंचित कर दिया है. उनके आगमन से पहले 'मूल निवासी' इस भारतभूमि के स्वामी हुआ करते थे'.
अत: अगर मूलनिवासी समाज को न्याय दिलाना है तो तो फुले-अंबेडकरी विचारधारा के आधार पर मनुवादी सामाजिक संरचना का विखंडन करना होगा.
आज संस्था अपने विचारों के विस्तार के लिए पांच भाषाओं- हिंदी, अंग्रेज़ी, मराठी, पंजाबी एवं गुजराती भाषा में समाचार पत्र निकालती है. संस्था का अपना प्रकाशन विभाग भी है.
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