Thursday, January 7, 2016

ब्राह्मणवाद और आंबेडकरवाद

ब्राह्मणवाद और आंबेडकरवाद भारतीय चिंतन परंपरा के दो अलग ध्रुव हैं। इनमें से एक घटेगा, तो दूसरा बढ़ेगा। एक मिटेगा, तो दूसरा बचेगा। आंबेडकर की नजरमें आरएसएस जिन लोगों का संगठन है वे बीमार हैं और उनकी बीमारी बाकी लोगों के लिए खतरा है। राष्ट्र निर्माता के रूप में बाबा साहेब भीम राव आंबेडकरकी विधिवत स्थापना का कार्य 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाने की राजपत्र में की गई घोषणा के साथ संपन्न हुआ। संविधान दिवस संबंधी भारत सरकार के गजट में सिर्फ एक ही शख्सियत का नाम है और वह नाम स्वाभाविक रूप से बाबा साहेब का है। बाबा साहेब को अपनाने की बीजेपी और संघ की कोशिशों का भी यह चरम रूप है। लेकिन क्या इस तरह के अगरबत्तीवाद के जरिए बाबा साहेब को कोई संगठन आत्मसात कर सकता है? मुझे संदेह ह।. इस संदेह का कारण मुझे आंबेडकरी विचारों और उनके साहित्यमें नजर आता है. इस बात की पुष्टि के लिए मैं बाबा साहेब की सिर्फ एक किताब एनिहिलेशन ऑफ कास्ट का संदर्भ ले रहा हूं। याद रहे कि यह सिर्फ एक किताब है। पूरा आंबेडकरी साहित्य ऐसे लेखन से भरा पड़ा है, जो संघ को लगातार असहज बनाएगा। एनिहिलेशन ऑफ कास्ट पहली बार 1936 में छपी थी। दरअसल यह एक भाषण है, जिसे बाबा साहेब ने लाहौर के जात-पात तोड़क मंडल के 1936 के सालाना अधिवेशन के लिए तैयार किया था। लेकिन इस लिखे भाषण को पढ़कर जात-पाततोड़क मंडल ने पहले तो कई आपत्तियां जताईं और फिर कार्यक्रम ही रद्द कर दिया। इस भाषण को ही बाद में एनिहिलेशन ऑफ कास्ट नाम से छापा गया। दूसरे संस्करण की भूमिका में बाबा साहेब इस किताब का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि –"अगर मैं हिंदुओं का यह समझा पाया कि वे भारत के बीमार लोग हैं और उनकी बीमारी दूसरे भारतीय लोगों के स्वास्थ्य और उनकी खुशी के लिए खतरा है, तो मैं अपने काम से संतुष्ट हो पाऊंगा." जाहिर है कि बाबा साहेब के लिए यह किताब एक डॉक्टर और मरीज यानी हिंदुओं के बीच का संवाद है। इसमें ध्यान रखनेकी बात है कि जो मरीज है, यानी जो भारत का हिंदू है, उसे या तो मालूम ही नहीं है कि वह बीमार है, या फिर वह स्वस्थ होने का नाटक कर रहा है और किसी भी हालत में वह यह माननेको तैयार नहीं है कि वह बीमार है। बाबा साहेब की चिंता यह है कि वह बीमार आदमी दूसरे लोगों के लिए खतरा बना हुआ है। संघ उसी बीमार आदमी का प्रतिनिधि संगठन होने का दावा करता है। वैसे यह बीमार आदमी कहीं भी हो सकता है। कांग्रेस से लेकर समाजवादी और वामपंथी कम्युनिस्ट तक उसके कई रूप हो सकते हैं। लेकिन वह जहां भी है, बीमार है और बाकियों के लिए दुख का कारण है। बीमार न होने का बहाना करता हुआ हिंदू कहता है कि वह जात-पात नहीं मानता। लेकिन बाबा साहेब की नजर में ऐसा कहना नाकाफी है। वे इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश करते हैं कि भारत में कभी क्रांति क्यों नहीं हुई। वे बताते हैं कि कोई भी आदमी आर्थिक बराबरी लाने की क्रांतिमें तब तक शामिल नहीं होगा, जब तक उसे यकीन न हो जाए कि क्रांति के बाद उसके साथ बराबरी का व्यवहार और जाति के आधार पर उसके साथ भेदभाव नहीं होगा। इस भेदभाव के रहते भारत के गरीब कभी एकजुट नहीं हो सकते.। वे कहते हैं कि आप चाहें जो भी करें, जिस भी दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश करें, जातिवाद का दैत्य आपका रास्ता रोके खड़ा मिलेगा। इस राक्षस को मारे बिना आप राजनीतिक या आर्थिक सुधार नहीं कर सकते। डॉक्टर आंबेडकर की यह पहली दवा है। क्या संघ इस कड़वी दवा को पीने के लिए तैयार है? जातिवाद के खात्मे की दिशा में संघ ने पहला कदम नहीं बढ़ाया है। क्या वह आगे ऐसा करेगा? मुझे संदेह है। डॉ. आंबेडकर के मुताबिक जाति ने भारतीयों की आर्थिक क्षमता को कुंद किया है। इससे नस्ल बेहतर होने की बात भी फर्जी सिद्ध हुई है क्योंकि नस्लीय गुणों के लिहाज से भारतीय लोग सी 3 श्रेणी के हैं और 95 प्रतिशत भारतीय लोगों की शारीरिक योग्यता ऐसी नहीं है कि वे ब्रिटिश फौजमें भर्ती हो सकें। बाबा साहेब आगे लिखते हैं कि हिंदू समाज जैसी कोई चीज है ही नहीं। हिंदू मतलब दरअसल जातियोंका जमावड़ा है। इसके बाद वे एक बेहद गंभीर बात बोलते हैं कि एक जाति को दूसरी जाति से जुड़ाव का संबंध तभी महसूस होता है, जब हिंदू-मुसलमान दंगे हों। संघ के मुस्लिम विरोध के सूत्र बाबा साहेब की इस बात में छिपे हैं। वह जाति को बनाए रखते हुए हिंदुओं को एकजुट देखना चाहता है, इसलिए हमेशा मुसलमानों का विरोध करता रहता है। दंगों को छोड़कर बाकी समय में हिंदू अपनी जाति के साथ खाता है और जाति में ही शादी करता है।
जय भीम

No comments:

Post a Comment