सवाल यह नहीं है कि राम मंदिर में लोगों की आस्था है। असली सवाल यह है कि उसे आस्था बना कौन रहा है ? उस से भी मजेदार सवाल यह है कि उसे आस्था बनाने के पीछे क्या उद्देश्य है ? बंगाल का हिन्दू जो कि काली का उपासक है उसकी राम में क्या आस्था है ? तमिलनाडु का हिन्दू जिसकी मुरगन में आस्था है उसकी राम में क्या आस्था है ? राजस्थान का हिन्दू जिसकी रामदेव पीर में आस्था है उसकी राम में क्या आस्था है ? अब सवाल यह उठता है कि क्या हिन्दुओं की किसी एक भगवान में आस्था है ? जवाब है कि नहीं। तो फिर हिन्दुओं की आस्था को मुद्दा बनाना सही नहीं है। और उसे राजनैतिक रूप देना तो पूर्णतः ही धर्म नहीं बल्कि अधर्म है। धर्म लोगों को विवाद में उलझाता नहीं बल्कि उन से बचाता है। महाभारत में कृष्ण कौरवों से सुलह करने को कहते हैं। रामायण में राम भी रावण से सुलह करना चाहते हैं। जब भगवान खुद विवादों से बच कर मानव कल्याण की बात करते हैं तो आखिर खुद को उनका पुजारी कहने वाला कैसे विवादों में लोगों को फंसा सकता है। विवादों को उत्पन्न करना और उनका लाभ उठा कर सत्ता पाना किसी धर्मात्मा का काम नहीं है। यह नीच काम केवल और केवल महापापी का ही हो सकता है।
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