मोदी अगर सचमुच दलितों की दुर्दशा को दूर करना चाहते हैं तो उन्हें निम्न बातों पर गंभीरता से विचार करना होगा। सबसे पहले तो यह ध्यान रखना होगा संविधान प्रारूप समिति में जाने के पीछे डॉ. आंबेडकर का प्रधान अभीष्ट दलित वर्ग का कल्याण करना था, जिसका खुलासा उन्होंने 25 नवम्बर, 1949 को संसद में दिए गए अपने ऐतिहासिक भाषण में भी किया था। इस बात की ओर राष्ट्र का ध्यान नए सिरे से आकर्षित करते हुए विद्वान् सांसद शरद यादव ने गत 27 नवम्बर को संसद में संविधान पर चर्चा के दौरान कहा था भारत के संविधान निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर को जो जिम्मा दिया गया था, वह इसलिए दिया गया था कि देश के सबसे जयादा छोटे और सब से ज्यादा निचले तबके, छोटी जाति व वीकर सेक्शन के लोगों की जिंदगी कैसे ठीक होगी, कैसी संवरेगी, उन्हें बनाने का यही मकसद था।' लेकिन बाबा साहेब इस मकसद में पूरी तरह सफल इसलिए नहीं हो पाए क्योंकि संविधान निर्माण के समय वे दुनिया के सबसे लाचार स्टेट्समैन थे। पाकिस्तान विभाजन के बाद वह संविधान सभा में पहुंचे थे तो उस दल की अनुकम्पा से जिसका लक्ष्य परम्परागत विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न तबके का हित-पोषण था। उनकी लाचारी की ओर संकेत करते हुए पंजाबराव देशमुख ने कहा था कि यदि आंबेडकर को संविधान लिखने की छूट मिली होती तो शायद यह संविधान अलग तरह का बनता। मनचाहा संविधान लिखने की छूट न होने के कारण ही उन्हें 'राज्य और अल्पसंख्यक' पुस्तिका की रचना करनी पड़ी थी। अगर मनचाहा संविधान लिखने की छूट होती तो अक्तूबर 1942 में गोपनीय ज्ञापन के जरिये ब्रितानी सरकार के समक्ष ठेकों में आरक्षण की मांग उठाने वाले आंबेडकर क्या संविधान में ठेकों सहित सप्लाई, डीलरशिप इत्यादि अन्यान्य आर्थिक गतिविधियों में दलितों व अन्य वीकर सेक्शन के लिए हिस्सेदारी सुनिश्चित नहीं कर देते?
काबिले गौर है कि मानव सभ्यता के इतिहास में जिन तबकों को शोषण, उत्पीड़न और वंचना का शिकार बनना पड़ा, वह इसलिए हुआ कि जिनके हाथों में सत्ता की बागडोर रही उन्होंने उनको शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनैतिक-धार्मिक-शैक्षिक इत्यादि) में वाजिब हिस्सेदारी नहीं दिया। जहां तक आंबेडकर के लोगों का सवाल है उन्हें हजारों सालों से शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत रखा गया। स्मरण रहे डॉ. आंबेडकर के शब्दों में अस्पृश्यता का दूसरा नाम बहिष्कार है। इस देश के शासकों ने जिस निर्ममता से आंबेडकर के लोगों को शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत कर अशक्त व असहाय बनाया, मानव जाति के इतिहास में उसकी कोई मिसाल ही नहीं है। बहरहाल अपनी सीमाओं में रहकर जितना मुमकिन था, उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 14, 15(4), 16(4), 17, 24, 25(2), 29(1), 38(1), 38(2), 39, 46, 164(1), 244, 257(1), 320(4), 330, 332, 334, 335, 338, 340, 341, 342, 350, 371 इत्यादि प्रावधानों के जरिये मोदी के दलित, पीड़ित, शोषित समाज चेहरा बदलने का सबल प्रयास किया। लेकिन आजाद भारत के शासक आंबेडकर के लोगों के प्रति प्रायः असंवेदनशील रहे इसलिए वे इन प्रावधानों को भी इमानदारी से लागू नहीं किये।
फलतः आज भी दलित शोषित अपनी दुर्दशा से निजात नहीं पा सके हैं। काबिले गौर है कि आंबेडकरी आरक्षण से प्रेरणा लेकर अमेरिका ने अपने देश के कालों व वंचित अन्य नस्लीय समूहों को सरकारी नौकरियों के साथ-साथ सप्लाई, डीलरशिप, ठेंको, फिल्म-टीवी इत्यादि समस्त क्षेत्रों में ही अवसर सुलभ कराया। इससे अमेरिकी वंचितों के जीवन में सुखद बदलाव आया। प्रधानमंत्री यदि सचमुच अवसरों से वंचित दलित शोषितों के जीवन में बदलाव लाना चाहते हैं, जोकि संविधान निर्माता की दिली चाह थी, तो मौजूदा आरक्षण के प्रावधानों को कठोरता से लागू करवाने के साथ ही उन्हें सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, फिल्म-टीवी इत्यादि में पर्याप्त अवसर दिलाने का मन बनायें और उसकी घोषणा डिक्की के मंच से करें। साल के विदा लेते-लेते आंबेडकर की 125 वीं जयंती वर्ष में डॉ. आंबेडकर के लोगों के मुकम्मल-अस्पृश्यतामोचन का डिक्की से बेहतर मंच और कहां मिल सकता है!
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